जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एकता की रट
जिन दिनो खेड़ा का आन्दोलन चल रहा था, उन दिनों यूरोप का महायुद्ध भी जारी था। वाइसरॉय ने उसके सिलसिले में नेताओं को दिल्ली बुलाया था। मुझसे आग्रह किया गया था कि मैं भी उसमें हाजिर होऊँ। मैं बता चुका हूँ कि लॉर्ड चेम्सफर्ड के साथ मेरी मित्रता थी।
मैंने निमंत्रण स्वीकार किया और मैं दिल्ली गया। किन्तु इस सभा में सम्मिलित होते समय मेरे मन में एक संकोच था। मुख्य कारण तो यह था कि इस सभा में अलीभाइयो को, लोकमान्य को और दूसरे नेताओं को निमंत्रित नहीं किया गया था। उस समय अलीभाई जेल में थे। उनसे मैं एक-दो बार ही मिला था। उनके बारे में सुना बहुत था। उनकी सेवावृति औऱ बहादुरी की सराहना सब कोई करते थे। हकीम साहब के सम्पर्क में मैं नहीं आया था। स्व. आचार्य रुद्र और दीनबन्धु एंड्रूज के मुँह से उनकी बहुत प्रशंसा सुनी थी। कलकत्ते में हुई मुस्लिम लीग की बैठक के समय श्वेब कुरेशी और बारिस्टर ख्वाजा से मेरी जान-पहचान हुई थी। डॉ. अन्सारी, डॉ. अब्दुर रहमान के साथ भी जानपहचान हो चुकी थी। मैं सज्जन मुसलमानों की संगति के अवसर ढूँढता रहता था और जो पवित्र तथा देशभक्त माने जाते थे, उनसे जान-पहचान करके उनकी भावना को जानने की तीव्र इच्छा मुझ में रहती थी। इसलिए वे अपने समाज में मुझे जहाँ कहीं ले जाते वहाँ बिना किसी आनाकानी के मैं चला जाता था।
इस बात को तो मैं दक्षिण अफ्रीका में ही समझ चुका था कि हिन्दु-मुसलमानों के बीच सच्चा मित्रभाव नहीं है। मैं वहाँ ऐसे एक भी उपाय को हाथ से जाने न देता था, जिससे दोनों के बीच की अनबन दूर हो। झूठी खुशामद करके अथवा स्वाभिमान खोकर उनको अथवा किसी और को रिझाना मेरे स्वभाव में न था। लेकिन वही से मेरे दिल में यह बात जमी हई थी कि मेरी अहिंसा की कसौटी और उसका विशाल प्रयोग इस एकता के सिलसिले में ही होगा। आज भी मेरी यह राय कायम है। ईश्वर प्रतिक्षण मुझे कसौटी पर कस रहा है। मेरा प्रयोग चालू है।
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