जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
चूंकि मैंने खिलाफत के मामले में मुसलमानों का साथ दिया था, इसलिए इस सम्बन्ध में मित्रों और आलोचको ने मेरी काफी आलोचना की है। उन सब पर विचार करने के बाद जो राय मैंने बनायी और जो मदद दी या दिलायी, उसके बारे में मुझे कोई पश्चाताप नहीं है, न उसमें मुझे कोई सुधार ही करना है। मुझे लगता है कि आज भी ऐसा सवाल उठे, तो मेरा व्यवहार पहले की तरह ही होगा।
इस प्रकार के विचार लेकर मैं दिल्ली गया। मुसलमानों के दुःख की चर्चा मुझे वाइसरॉय से करनी थी। खिलाफत के प्रश्न ने अभी पूर्ण स्वरूप धारण नहीं किया था।
दिल्ली पहुँचते ही दीनबन्धु एंड्रूज ने एक नैतिक प्रश्न खड़ा कर दिया। उन्हीं दिनो इटली और इग्लैंड के बीच गुप्त संधि होने की जो चर्चा अंग्रेजी अखबारों में छिड़ी थी, उसकी बात कहकर दीनबन्धु ने मुझ से कहा, 'यदि इंग्लैंड ने इस प्रकार की गुप्त संधि किसी राष्ट्र के साथ की हो, तो आप इस सभा में सहायक की तरह कैसे भाग ले सकते है? ' मैं इन संधियो के विषय में कुछ जानता नहीं था। दीनबन्धु का शब्द मेरे लिए पर्याप्त था। इस कारण को निमित्त बनाकर मैंने लॉर्ड चेम्सफर्ड को पत्र लिखा कि सभा में सम्मिलित होते हुए मुझे संकोच हो रहा है। उन्होंने मुझे चर्चा के लिए बुलाया। उनके साथ और बाद में मि. मेंफी के साथ मेरी लम्बी चर्चा हुई। उसका परिणाम यह हुआ कि मैंने सभा में सम्मिलित होना स्वीकार किया। थोड़े में वाइसरॉय की दलील यह थी, 'आप यह तो नहीं मानते कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल जो कुछ करे, उसकी जानकारी वाइसरॉय को होनी चाहिये? मैं यह दावा नहीं करता कि ब्रिटिश सरकार कभी भूल करती ही नहीं। कोई भी ऐसा दावा नहीं करता। किन्तु यदि आप स्वीकार करते है कि उसका अस्तित्व संसार के लिए कल्याणकारी है, यदि आप यह मानते है कि उसके कार्यो से इस देश को कुल मिलाकर कुछ लाभ हुआ है, तो क्या आप यह स्वीकार नहीं करेंगे कि उसकी विपत्ति के समय उसे मदद पहुँचना प्रत्येक नागरिक का धर्म है? गुप्त संधि के विषय में आपने समाचार पत्रो में जो देखा है, वही मैंने भी देखा है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता यह मैं आपसे विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ। अखबारों में कैसी कैसी गप्पे आती है, यह तो आप जानते ही है। क्या अखबार में आयी हुई एक निन्दाजनक बात पर आप ऐसे समय राज्य का त्याग कर सकते है? लडाई समाप्त होने पर आपको जितने नैतिक प्रश्न उठाने हो उठा सकते है और जितनी तकरार करनी हो उतनी कर सकते है।'
यह दलील नई नहीं थी। लेकिन जिस अवसर पर और जिस रीति से यह पेश की गयी, उसमें मुझे नई-जैसी लगी और मैंने सभा में जाना स्वीकार कर लिया। खिलाफत के बारे में यह निश्चय हुआ कि मैं वाइसरॉय को पत्र लिखकर भेजूँ।
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