जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैं जो प्रकरण लिखने वाला हूँ उनमें यदि पाठकों को अभिमान का भास हो तो उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिये कि मेरी शोध में खामी है और मेरी झाँकियाँ मृगजल के समान हैं। मेरे समान अनेकों का क्षय चाहे हो, पर सत्य की जय हो। अल्पात्मा को मापने के लिए हम सत्य का गज कभी छोटा न करें।
मैं चाहता हूँ कि लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझे। यही मेरी बिनती है। मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उसमें बताये गये प्रयोगों को दृष्टान्तरूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा, क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीँ। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का ख्याल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा। मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है, मैं किनता भला हूँ इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ और जिसका उपयोग हम सब को अपने अपने विषय में करना चाहिये, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि:
मो सम कौन कुटिल खल कामी?
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो निमकहरामी।
क्योंकि जिसे मैं सम्पूर्ण विश्वास के साथ अपने श्वासोच्छ्वास का स्वामी समझता हूँ जिसे मैं अपना नमक का देने वाला मानता हूँ, उससे मैं अभी तक दूर हूँ, यह चीज मुझे प्रतिक्षण खटकती है। इसके कारणरूप अपने विकारों को मैं देख सकता हूँ पर उन्हें अभी तक निकाल नहीं पा रहा हूँ।
परन्तु इसे यहीं समाप्त करता हूँ। प्रस्तावना में से मैं प्रयोग की कथा में नहीं उतर सकता। वह तो कथा प्रकरणों में ही मिलेगी।
आश्रम, साबरमती
मार्गशीर्ष शुक्ल 11, 1982
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