जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
हम जिस गाँव में जाते, उस गाँव में सभा करते। लोग आते, लेकिन भरती के लिए नाम तो मुश्किल से एक या दो ही मिलते। 'आप अहिंसावादी होकर हमे हथियार उठाने के लिए क्यों कहते है? ' 'सरकार ने हिन्दुस्तान का क्या भला किया है कि आप हमे उसकी मदद करने को कहते है?' ऐसे अनेक प्रकार के प्रश्न मेरे सामने रखे जाते थे।
यह सब होते हए भी धीरे-धीरे सतत कार्य का प्रभाव लोगों पर पड़ने लगा था। नाम भी काफी संख्या ने दर्ज होने लगे थे औऱ हम यह मानने लगे थे कि अगर पहली टुकड़ी निकल पड़े तो दूसरो के लिए रास्ता खुल जायगा। यदि रंगरूट निकले तो उन्हे कहाँ रखा जाये इत्यादि प्रश्नो की चर्चा मैं कमिश्नर से करने लगा था। कमिश्नर दिल्ली के ढंग पर जगह-जगह सभाये करने लगे थे। गुजरात में भी वैसी सभा हुई। उसमें मुझे और साथियो को निमंत्रित किया गया था। मैं उसमें भी सम्मिलित हुआ था। पर यदि दिल्ली की सभा में मेरे लिए कम स्थान था, तो यहाँ की सभा में उससे भी कम स्थान मुझे अपने लिए मालूम हुआ। 'जी-हुजूरी' के वातावरण में मुझे चैन न पड़ता था। यहाँ मैं कुछ अधिक बोला था। मेरी बात में खुशामद जैसी तो कोई चीज थी ही नहीं, बल्कि दो कड़वे शब्द भी थे। रंगरूटो की भरती के सिलसिले में मैंने जो पत्रिका प्रकाशित की थी, उसमें भरती के लिए लोगों को निमंत्रित करते हुए जो एक दलील दी गयी थी वह कमिश्नर को बुरी लगी थी। उसका आशय यह था, 'ब्रिटिश राज्य के अनेकानेक दुष्कृत्यो में समूची प्रजा को निःशस्त्र बनाने वाले कानून को इतिहास उसका काले से काला काम मानेगा। इस कानून को रद्द कराना हो और शस्त्रो का उपयोग सीखना हो, तो उसके लिए यह एक सुवर्ण अवसर है। संकट के समय मध्यम श्रेणी के लोग स्वेच्छा से शासन की सहायता करेगे तो अविषश्वास दूर होगा और जो व्यक्ति शस्त्र धारण करना चाहेगा वह आसानी से वैसा कर सकेगा। ' इसको लक्ष्य में रखकर कमिश्नर को कहना पड़ा था कि उनके और मेरे मतभेद के रहते हुए भी सभा में मेरी उपस्थिति उन्हें प्रिय थी। मुझे भी अपने मत का समर्थन यथासंभव मीठे शब्दों ने करना पड़ा था।
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