जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अब्दुर्रहमान गली में से क्रॉफर्ड मारकेट की ओर जाते हुए जुलूस को रोकने के लिए घुडसवारो की एक टुकड़ी सामने से आ पहुँची। वे जुलूस को किले की ओर जाने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। लोग वहाँ समा नहीं रहे थे। लोगों ने पुलिस की पांत को चीर कर आगे बढ़ने के लिए जोर लगाया। वहाँ हालत ऐसी नहीं कि मेरी आवाज सुनायी पड़ सके। यह देखकर घुडसवारो की टुकड़ी के अफसर ने भीड़ को तितर-बितर करने का हुक्म दिया और अपने भालो को घुमाते हुए इस टुकड़ी ने एकदम घोडे दौडाने शुरू कर दिये। मुझे डर लगा कि उनके भाले हमारा काम तमाम कर दे तो आश्चर्य नहीं। पर मेरा वह डर निराधार था। बगल से होकर सारे भाले रेलगाड़ी की गति से सनसनाते हुए दूर निकल जाते थे। लोगों की भीड़ में दरार पड़ी। भगदड मच गयी। कोई कुचले गये। कोई घायल हुए। घुटसवारो को निकलने के लिए कोई रास्ता नहीं था। लोगों के लिए आसपास बिखरने का रास्ता नहीं था। वे पीछे लौटे तो उधर भी हजारों लोग ठसाठस भरे हुए थे। सारा दृश्य भयंकर प्रतीत हुआ। घुड़सवार और जनता दोनों पागल जैसे मालूम हुए। घुडसवार कुछ देखते ही नहीं थे अथवा देख नहीं सकते थे। वे तो टेढे होकर घोडो को दौड़ाने में लगे थे। मैंने देखा कि जितना समय इन हजारों के दल को चीरने में लगा, उतने समय तक वे कुछ देख ही नहीं सकते थे।
इस तरह लोगों को तितर-बितर किया गया और आगे बढ़ने से रोका गया। हमारी मोटर को आगे जाने से रोक दिया गया। मैंने कमिश्नर के कार्यालय के सामने मोटर रुकवाई और मैं उससे पुलिस के व्यवहार की शिकायत करने के लिए उतरा।
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