जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने अपना धर्म स्पष्ट देखा। जिन मजदूरो आदि के बीच मैंने इतना समय बिताया था, जिनकी मैंने सेवा की थी और जिनके विषय में मैं अच्छे व्यवहार की आशा रखता था, उन्होंने उपद्रव में हिस्सा लिया, यह मुझे असह्य मालूम हुआ और मैंने अपने को उनके दोष में हिस्सेदार माना।
जिस तरह मैंने लोगों को समझाया कि वे अपना अपराध स्वीकार कर ले, उसी तरह सरकार को भी गुनाह माफ करने की सलाह दी। दोनों में से किसी एक ने भी मेरी बात नहीं सुनी। न लोगों ने अपने दोष स्वीकार किये, न सरकार ने किसी को माफ किया।
स्व. रमणभाई आदि नागरिक मेरे पास आये और मुझे सत्याग्रह मुलतवी करने के लिए मनाने लगे। पर मुझे मनाने की आवश्यकता ही नहीं रही थी। मैंने स्वयं निश्चय कर लिया था कि जब तक लोग शान्ति का पाठ न सीख ले, तब तक सत्याग्रह मुलतवी रखा जाये। इससे वे प्रसन्न हुए।
कुछ मित्र नाराज भी हुए। उनका ख्याल यह था कि अगर मैं सब कहीं शान्ति की आशा रखूँ और सत्याग्रह की यही शर्त रहे, तो बड़े पैमाने पर सत्याग्रह कभी चल ही नहीं सकता। मैंने अपना मतभेद प्रकट किया। जिन लोगों में काम किया गया है, जिनके द्वारा सत्याग्रह करने की आशा रखी जाती है, वे यदि शान्ति का पालन न करे, तो अवश्य ही सत्याग्रह कभी चल नहीं सकता। मेरी दलील यह थी कि सत्याग्रही नेताओं को इस प्रकार की मर्यादित शान्ति बनाये रखने की शक्ति प्राप्त करनी चाहिये। अपने इन विचारो को मैं आज भी बदल नहीं सका हूँ।
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