जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने अपना प्रस्ताव तैयार किया। बड़े संकोच से मैंने उसे पेश करना कबूल किया। मि. जिन्ना और मालवीयजी उसका समर्थन करने वाले थे। भाषण हुए। मैं देख रहा था कि यद्यपि हमारे मतभेद में कही कटुता नहीं थी, भाषणो में भी दलीलो के सिवा और कुछ नहीं था, फिर भी सभा जरा-सा भी मतभेद सहन नहीं कर सकती थी और नेताओं के मतभेद से उसे दुःख हो रहा था। सभा को तो एकमत चाहिये था।
जब भाषण हो रहे थे उस समय भी मंच पर मतभेद मिटाने की कोशिशें चल रही थी। एक-दूसरे बीच चिट्ठियाँ आ-जा रही थीं। मालवीयजी, जैसे भी बने, समझौता कराने का प्रयत्न कर रहे थे। इतने में जयरामदास ने मेरे हाथ पर अपना सुझाव रखा और सदस्यों को मत देने के संकट से उबार लेने के लिए बहुत मीठे शब्दों में मुझ से प्रार्थना की। मुझे उनका सुझाव पसन्द आया। मालवीयजी की दृष्टि तो चारो ओर आशा की खोज में घूम ही रही थी। मैंने कहा, 'यह सुझाव दोनों पक्षों को पसन्द आने लायक मालूम होता है।' मैंने उसे लोकमान्य को दिखाया। उन्होंने कहा, 'दास को पसन्द आ जाये, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।' देशबन्धु पिघले। उन्होंने विपिनचन्द्र पाल की ओर देखा। मालवीयजी को पूरी आशा बँध गयी। उन्होंने परची हाथ से छीन ली। अभी देशबन्धु के मुँह से 'हाँ' का शब्द पूरा निकल भी नहीं पाया था कि वे बोल उठे, 'सज्जनों, आपको यह जानकर खुशी होगी कि समझौता हो गया है।' फिर क्या था? तालियों का गडगड़ाहट से मंड़प गूंज उठा और लोगों के चहेरो पर जो गंभीरता थी, उसके बदले खुशी चमक उठी।
यह प्रस्ताव क्या था, इसकी चर्चा की यहाँ आवश्यकता नहीं। यह प्रस्ताव किस तरह स्वीकृत हुआ, इतना ही इस सम्बन्ध में बतलाना मेरे इन प्रयोगों का विषय है। समझौते ने मेरी जिम्मेदारी बढा दी।
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