जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैं जानता था कि जलियाँवाला बाग के काम के लिए उन लोगों से पैसा नहीं माँगा जा सकता। अतएव संरक्षक का पद स्वीकार करते समय ही मैं यह समझ गया था कि इस स्मारक के लिए धन-संग्रह का बोझ मुझ पर पड़ेगा और यही हुआ भी। बम्बई के उदार नागरिकों ने इस स्मारक के लिए दिल खोलकर धन दिया और आज जनता के पास उसके लिए जितना चाहिये उतना पैसा है। किन्तु हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों के मिश्रित रक्त से पावन बनी हुई इस भूमि पर किस तरह का स्मारक बनाया जाये, अर्थात पड़े हुए पैसों का क्या उपयोग किया जाये, यह एक विकट सवाल हो गया है, क्योंकि तीनों के बीच आज दोस्ती के बदले दुश्मनी का भास हो रहा है।
मेरी दूसरी शक्ति लेखक और मुंशी का काम करने की थी, जिसका उपयोग कांग्रेस कर सकती थी। नेतागण यह समझ चुके थे कि लम्बे समय के अभ्यास के कारण कहाँ, क्या औऱ कितने कम शब्दों में व अविनय-रहित भाषा में लिखना चाहिये सो मैं जानता हूँ। उस समय कांग्रेस का जो विधान था, वह गोखले की छोड़ी हुई पूंजी थी। उन्होंने कुछ नियम बना दिये थे। उनके सहारे कांग्रेस का काम चलता था। वे नियम कैसे बनाये गये, इसका मधुर इतिहास मैंने उन्हीं के मुँह से सुना था। पर अब सब कोई यह अनुभव कर रहे थे कि कांग्रेस का काम उतने नियमों से नहीं चल सकता। उसका विधान बनाने की चर्चायें हर साल उठती थीं। पर कांग्रेस के पास ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं थी जिससे पूरे वर्षभर उसका काम चलता रहे, अथवा भविष्य की बात कोई सोचे। उनके तीन मंत्री होते थे, पर वास्तव में कार्यवाहक मंत्री तो एक ही रहता था। वह भी चौबीसो घंटे दे सकने वाला नहीं होता था। एक मंत्री कार्यालय चलाये या भविष्य का विचार करे अथवा भूतकाल में उठायी हुई कांग्रेस की जिम्मेदारियों को वर्तमान वर्ष में पूरा करे? इसलिए इस वर्ष यह प्रश्न सबकी दृष्टि में अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया।
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