जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
समिति में मेरे विचार के दूसरे सदस्य भी थे। पर मुझे अपने विचार व्यक्त करने का जोश चढा था। उन्हें कैसे व्यक्त किया जाये, यह एक महान प्रश्न बन गया। मुझमे बोलने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए मैंने अपने विचार लिखकर सभापति के सम्मुख रखने का निश्चय किया। मैं अपना लेख ले गया। जैसा कि मुझे याद है, मैं उसे पढ़ जाने की हिम्मत भी नहीं कर सका। सभापति ने उसे दूसरे सदस्य से पढवाया। डॉ. एलिन्सन का पक्ष हार गया। अतएव इस प्रकार के अपने इस पहले युद्ध में मैं पराजित पक्ष में रहा। पर चूकिं मैं उस पक्ष को सच्चा मानता था, इसलिए मुझे सम्पूर्ण संतोष रहा। मेरा कुछ ऐसा ख्याल है कि उसके बाद मैंने समिति से इस्तिफा दे दिया था।
मेरी लज्जाशीलता विलायत में अन्त तक बनी रही। किसी से मिलने जाने पर भी, जहाँ पाँच-सात मनुष्यो की मण्डली इक्ट्ठा होती वहाँ मैं गूंगा बन जाता था।
एक बार मैं वेंटनर गया था। वहाँ मजमुदार भी थे। वहाँ के एक अन्नाहार घर में हम दोनो रहते थे। 'एथिक्स ऑफ डायेट' ते लेखक इसी बन्दरगाह में रहते थे। हम उनसे मिले। वहाँ अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गयी। उसमें हम दोनो को बोलने का निमंत्रण मिला। दोनो ने उसे स्वीकार किया। मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढने में कोई दोष नहीं माना जाता। मैं देखता था कि अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे। मैंने अपना भाषण लिख लिया। बोलने की हिम्मत नहीं थी। जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ, तो पढ़ न सका। आँखो के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर काँपने लगे। मेरा भाषण मुश्किल से फुलस्केप का एक पृष्ठ रहा होगा। मजमुदार ने उसे पढ़कर सुनाया। मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ। श्रोतागण उनकी बातो का स्वागत तालियों की गड़गडाहट से करते थे। मैं शरमाया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुःखी हुआ।
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