जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
नास्तिकता के बारे में भी कुछ जाने बिना काम कैसे चलता? ब्रेडला का नाम तो सब हिन्दुस्तानी जानते ही थे। ब्रेडला नास्तिक माने जाते थे। इसलिए उनके सम्बन्ध में एक पुस्तक पढ़ी। नाम मुझे याद नहीं रहा। मुझ पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। मैं नास्तिकता रुपी सहारे के रेगिस्तान को पार कर गया। मिसेज बेसेंट की ख्याति तो उस समय भी खूब थी। वे नास्तिक से आस्तिक बनी हैं। इस चीज ने भी मुझे नास्तिकतावाद के प्रति उदासीन बना दिया। मैंने मिसेज बेसेंट की 'मैं थियॉसॉफिस्ट कैसे बनी?' पुस्तिका पढ़ ली थी। उन्हीं दिनों ब्रेडला का देहान्त हो गया। वोकिंग में उनका अंतिम संस्कार किया गया था। मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मेरा ख्याल हैं कि वहाँ रहने वाले हिन्दुस्तानियों में से तो एक भी बाकी नहीं बचा होगा। कई पादरी भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए आये थे। वापस लौटते हुए हम सब एक जगह रेलगाडी की राह देखते खड़े थे। वहाँ इस दल में से किसी पहलवान नास्तिक ने इन पादरियों में से एक के साथ जिरह शुरू की,
'क्यो साहब, आप कहते है न कि ईश्वर हैं?'
उन भद्र पुरुष ने धीमी आवाज में उत्तर दिया, 'हाँ, मैं कहता तो हूँ।'
वह हँसा और मानो पादरी को मात दे रहा हो इस ढंग से बोला, 'अच्छा, आप यह तो स्वीकार करते हैं न कि पृथ्वी की परिधि 28000 मील हैं?'
'अवश्य'
'तो कहिये, ईश्वर का कद कितना होगा और वह कहाँ रहता होगा?'
'अगर हम समझे तो वह हम दोनो के हृदय में वास करता हैं।'
'बच्चो को फुसलाइये, बच्चों को', यह कहकर उस योद्धा ने आसपास खड़े हुए हम लोगों की तरफ विजय दृष्टि से देखा। पादरी मौन रहे। इस संवाद के कारण नास्कितावाद के प्रति मेरी अरुचि और बढ़ गयी।
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