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धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा

कामना और वासना की मर्यादा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9831
आईएसबीएन :9781613012727

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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।

देने के लिए लेने का क्रम जब बिगड़ जाता है और जब मनुष्य अपने लिए ही संग्रह करने में तल्लीन रहता है। अपने भरण-पोषण और उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए नहीं, वरन अपना घर भरने में संलग्न हो जाता है तथा इसके लिए दूसरों का कोई ध्यान नहीं रखता, तभी मनुष्य की कामना विकृत हो जाती है। इससे उसका मानसिक संतुलन भी बिगड़ने लगता है। कामना विकृत होकर लोभ, तृष्णा और आसक्ति को जन्म देती है। इन विकारों के बढ़ जाने से मनुष्य की इच्छाशक्ति एवं आत्मबल क्षीण हो जाते हैं और फिर भय, आशंका, चिंता, अशांति आदि का प्रादुर्भाव होता है। संगृहीत वस्तुओं की हानि की तनिक-सी आशंका मनुष्य को चिंतित एवं परेशान करने लगती है। हानि के भय का धक्का कई बार इतना प्रबल होता है कि लोगों की मृत्यु तक हो जाती है या वे मानसिक रोगी बन जाते हैं। अपहरण, चोरी, डकैती, भेद खुलने का डर बढ़ने लगता है। अर्थ संग्रह के इस अनैतिक कार्य को मनुष्य का अंतर स्वीकार नहीं करता और उसका नैतिक भाव उसकी भर्त्सना करने लगता है। मनुष्य का आंतरिक एवं बाह्य जीवन संघर्षमय बन जाता है, जिसका परिणाम पतन, विनाश, असफलताओं के रूप में निकलता है।

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