धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
इच्छाएँ पाप नहीं हैं, पाप है उनकी निकृष्टता
संसार का स्वरूप इच्छाओं का ही मूर्त रूप है। संसार का प्रकृत स्वरूप ही
ईश्वर और उसका परिष्कृत, परिवर्तित एवं परिमार्जित रूप मनुष्य की इच्छाओं
का फल है। यह सारा जगत भी एकमात्र ईश्वर की इच्छा का स्कुरण है। मनुष्य भी
जो कुछ करता-धरता है, उसके मूल में इच्छा का ही प्राधान्य रहता है। ईश्वर
ने अपनी इच्छा शक्ति से मनुष्य सहित संपूर्ण चराचर जगत की सृष्टि कर दी और
मनुष्य को विविध शक्तियों से संपन्न कर उसके कर्तृव्य का खेल देखने के लिए
अवस्थित हो गया। मनुष्य को क्रियाशील बनाने के लिए इच्छाओं के साथ
सुख-दुःख का द्वंद्व देकर संचालित कर दिया।
मनुष्य ने जब होश सँभाला होगा, अपनी वास्तविक चेतना में आया होगा, तो उसने अपने चारों ओर प्रकृति के प्रचुर साधन बिखरे देखे होंगे और उनको अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रयोग में लाने की इच्छा करने लगा होगा। यहीं से उसकी इच्छा का विकास और आवश्यकता का अनुभव प्रारंभ हो गया होगा। आज संसार का जो परिष्कृत रूप दिखाई देता है, बड़े-बड़े निर्माण और सृजन दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे मनुष्य की प्रारंभिक इच्छा का क्रमानुगत परिणाम हैं।
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