धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
असमंजस की बात है कि वर्तमान युग में पुरातन युग की क्रियाशक्ति इच्छा विद्यमान तो है, उसने अपना स्वरूप और आकार तो बढ़ा लिया है; किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इच्छाओं के धरातल पर आत्म-विकास का जो आधार होना चाहिए था वह निरंतर टूटता जा रहा है। जिससे संसार में क्रियाशीलता और संकल्प शक्ति होते हुए भी उसका जो आनंद पृथ्वी पर प्रकट होना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा।
इच्छाएँ भ्रमित हो गई हैं, विकृत हो गई हैं, जब कि वे क्रियाशील अपनी आवेग क्षमता के साथ हैं, फलस्वरूप परिणाम उल्टे दृष्टिगोचर होने लगे।
हमारी इच्छाओं को चाहिए था कि वे हमें सृजनात्मक दिशा की ओर मोड़तीं। जिससे पार्थिव जीवन सुखी और समृद्ध होता, साथ ही साथ पारमार्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति होती। संक्षेप में यह लोक शांत और संतुष्ट बनता, परलोक में भी चिर-विश्रांति का विश्वास परिपुष्ट होता।
हुआ यह कि विकृत इच्छाओं ने इस जीवन को अशांत बना दिया है। पारलौकिक जीवन की सुख-शांति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। भटकी हुई इच्छाएँ अपने आपको भी सँभालने में समर्थ नहीं हो पा रहीं तो लोकोत्तर जीवन की दिशा में उन्मुख ही कैसे हो सकती हैं, जबकि इच्छाओं का अंतिम ध्येय परम-सुख, परम शांति युक्त परमात्मा को प्राप्त करना होना चाहिए था।
इस परम लक्ष्य से भटककर आज के मनुष्य ने जो दिशा पकड़ी है वह निकृष्ट होती चली जा रही है। व्यक्ति दिन-प्रतिदिन पाप की ओर बढ़ता जा रहा है। उसमें जो क्षणिक आकर्षण है उस प्रलोभन में फँसा हुआ जीव इच्छाओं के स्वरूप को भी समझ पाने में असमर्थ हो रहा है। इस नासमझी को दुरुस्त कर लिया जाए तो लोकोत्तर जीवन की उत्तमता का निश्चय भले ही न हो, यह जीवन तो स्वर्गीय आनंद की अनुभूति के साथ बिताया ही जा सकता है।
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