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मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :61
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9833
आईएसबीएन :9781613012833

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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।

लंबे समय तक दुर्बलता के शिकार रहने वालों को धीरे धीरे कई प्रकार की बीमारियां घेरती और दबोचती रहती हैं। छूत की बीमारियाँ एक से दूसरों को लगती और भले चंगों को चपेट में लेती चली जाती हैं। लंबे समय की गुलामी और अवांछनीयता स्तर की मूढ़ मान्यताओं, दुष्प्रवृत्तियों के संबंध में भी यही बात है। वे यदि निर्बाध गति से बढ़ती रहें, तो किसी भी समुदाय को खोखला किए बिना नहीं रहतीं।

देश की दरिद्रता प्रख्यात है। अशिक्षा, गंदगी और कुटेवों की बात भी छिपी हुई नहीं है। पर इस बात को समझने में जरा अधिक जोर लगाना पड़ेगा कि भारत में अमीरी का प्रदर्शन क्यों होता है? यहाँ अमीरों के साथ जुड़े हुए प्रमुख दीख पड़ने वाले काले पक्ष को विशेष रूप से देखना होगा। यों इसके अपवाद भी देखे जाते हैं। अमीरी सदा अवांछनीयताएँ ही उत्पन्न नहीं करतीं। सदुपयोग कर सकने वाले, उसका अपने तथा दूसरों के लिए समुचित लाभ भी उठा लेते हैं, पर आमतौर से वैसा कुछ नहीं बन पड़ता।

अपने देश में बड़प्पन का अर्थ आलस्य और अपव्यय है। दुर्व्यसनों की एक पूरी बटालियन भी साथ लग जाती है। देखा गया है कि अपने देश में परिश्रम करना पड़े तो उसे दुर्भाग्य का चिह्न माना जाएगा। राजा, सामंत, जमींदार, अमीर-उमराव, संत-महंत स्तर के आदमी मेहनत करने में अपना अपमान समझते हैं। वे अपनी शारीरिक सेवाओं के लिए भी समीपवर्ती लोगों पर आश्रित रहते हैं। लडकी की शादी उस घर में करना चाहते हैं जहाँ वह पलंग पर बैठी राज करे। जिसे दिन भर काम करना पड़े, उसे नीचा समझा जाता है। नेक-भले व्यक्तियों को भी छोटा इसलिए ही माना जाता है कि वे दिन भर कड़े परिश्रम में लगे रहते हैं। अमीर या मालदार तो उन्हें ही समझा जाता है, जिन्हें कुछ न करने की सुविधा हो। यह कामचोरी-हरामखोरी की आदत जहाँ भी जड जमाने लगेगी, वहाँ से ''बेशरम बेल'' की तरह हटने का नाम ही न लेगी।

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