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मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :61
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9833
आईएसबीएन :9781613012833

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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।

घर के समर्थ कमाते हैं और उसी कमाई से परिवार के सभी सदस्य गुजारा करते हैं। यह जिम्मेदारी भी है परंपरा भी और उदारता भी। सह वितरण यही है। पुण्य परमार्थ भी इसी को कहते हैं। मानवी गरिमा की सराहना इससे कम में करते बन ही नहीं पड़ती। संपत्ति की सार्थकता भी इसी में है कि उसे मिलजुल कर सभी लोग काम में लाएँ। गिरों को उठाने और उठों को आगे बढ़ाने में इसी प्रक्रिया को अपनाने से काम चलता है।

भारतीय धर्म परंपरा में गोग्रास, दैनिक पंच यज्ञ, मुसलमान धर्म में जकात, सिख धर्म में कड़ा-प्रसाद जैसे माध्यमों से दैनिक अनुदान निकालने की परंपरा है। समय भी संपदा है और साधनों को भी संपत्ति कहते हैं। दोनों ही वैभव ऐसे हैं जो हर किसी के पास न्यूनाधिक मात्रा में होते ही हैं। यदि खुशहाली हो, तब तो कहना ही क्या, पर यदि तंगी और व्यस्तता के बीच भी रहना पड़ता हो, तो भी आवश्यक सुविधा साधनों में कटौती करके भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए, उनका एक अंश नियमित रूप से निकालते ही रहना चाहिए। इसमें कंजूसी-कृपणता बरतना एक प्रकार से मानवी श्रेष्ठता को ही झुठलाना है।

दान धर्म भी है और अधर्म भी। हथियार से पुण्य भी बन पड़ता है और पाप भी। दानशीलता को यदि भाव संवेदनाओं और विचार परिष्कार में लगाया जाए तो ही समझना चाहिए कि युग धर्म के निर्वाह और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उस सदाशयता का सही नियोजन हो सका। अन्यथा धूर्तों द्वारा, मूर्ख आए दिन जिस तिस बहाने ठगे ही जाते रहते हैं और यह बहकाया जाता रहता है कि यह नियोजन पुण्य के लिए किया गया है। स्मरण रहे, उज्ज्वल भविष्य निर्माण की महती योजना, मन मस्तिष्क में आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का उभार उपजाए बिना और किसी प्रकार सफल-संभव हो नहीं सकेगी।

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