कहानी संग्रह >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
परिवर्तन का आधार तो ढूँढ़ें
स्वर्ग और नरक की दीवारें आपस में जुड़ी हुई हैं। घर वही है, पर एक दरवाजे से घुसने पर गंदगी से भरीपूरी नरक वाली कोठरी में पहुँचना पड़ता है, किंतु यदि दूसरे दरवाजे से होते हुए भीतर जाया जा सके तो स्वच्छता, सच्चा और सुगंधि से भरापूरा वातावरण ही दीख पड़ेगा।
हम अब झगड़ने, हड़पने, निगलने और समेटने-भरने पर उतारू होते हैं, तो हाथों-हाथ अनीतिजन्य आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। बाहर की भर्त्सना और प्रताड़ना को तो सहा भी जा सकता है, पर जब अंतरात्मा कचोटती है तब उसे सहन करना कठिन पड़ता है। पैर में लगी चोट और हाथ में लगी लाठी उतनी असह्य नहीं होती, जितना कि अपेण्डिसाइटिस, या हृदयघात जन्य दर्द से आदमी बेतरह तिलमिला जाता है और प्राणों पर आ बीतती है।
मानवी गरिमा को खोकर मनुष्य से ऐसा कुछ बन ही नहीं पड़ता, जिस पर वह संतोष या गर्व कर सके, प्रसन्नता व्यक्त कर सके और समुदाय के सम्मुख सिर ऊँचा उठाकर चल सके। बाहर की वर्षा से छाता लगाकर भी बचा जा सकता है, पर जब भीतर से लानत बरसती है तो उससे कैसे बचा जाए? धरती पर नरकीटक, नर-पशु और नर-पिशाच भी भ्रमण करते रहते हैं। देखने में उनकी भी आकृति मनुष्य जैसी ही होती है। अंतर तो आदतों को स्वभाव बनकर जमी हुई प्रकृति को देखकर ही किया जा सकता है।
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