कहानी संग्रह >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार निराशाजनक स्तर तक नीचे गिर गया है। उसने अपनी सत्ता और महत्ता को किस प्रकार फुलझड़ी की तरह जलाने का कौतुक अपना लिया है, उससे प्रतीत होता है कि इस सुहावनी धरती पर रहते हुए भी हम सब प्रेत-पिशाचों की तरह एक दूसरे को काटने, गलाने, जलाने पर उतारू हैं। इसके प्रतिफल स्वरूप परस्पर सहयोग की बात बनना तो दूर, हम अविश्वास के ऐसे वातावरण में रह रहे हैं, जिसमें अपनी छाया तक से डर लगता है। विश्वास और विश्वासघात दोनों परस्पर हमजोली बनकर चल रहे हैं। असंयम के अतिवाद ने शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक दूरदर्शिता को मटियामेट करके रख दिया है। धन की इतनी बड़ी भूमिका बताई है कि उसे पाने के लिए कोई किसी के साथ कितनी ही बढ़ी-चढ़ी दुष्टता कर बैठे, तो उसे कम ही समझना चाहिए। ऐसे अभ्यस्त अनाचार के बीच कोई शरीर, मस्तिष्क, परिवार, समाज स्वयं समुन्नत रह सकेगा, इसकी आशा ही छोड़ देनी चाहिए, छूट भी गई है।
समय को अत्यंत दुरूह समझा जा रहा है और मान्यता बनती जा रही है कि यह बढ़ते हुए कदम मानवी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी समापन करके रहेंगे। क्या हम सब अगले ही दिनों सामूहिक आत्महत्या का यह विनाश आयोजित करके रहेंगे?
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