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मूछोंवाली

मधुकान्त

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9835
आईएसबीएन :9781613016039

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‘मूंछोंवाली’ में वर्तमान से दो दशक पूर्व तथा दो दशक बाद के 40 वर्ष के कालखण्ड में महिलाओं में होने वाले परिवर्तन को प्रतिबिंबित करती हैं ये लघुकथाएं।

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मुक्तिबोध


नारी स्वभाव के अनुरूप तो पति के आश्रय में अपने आपको खो देना चाहती है लेकिन बेचारी सरसों ने तो ऐसा सांड पाल रखा है- जो दूधका ना धांस का।

इस पर भी उसे कोई शिकायत नहीं। सुबह सफाई के लिए निकलती, दोपहर खाना इकट्ठा कर, सबका पेट पालती और सांय भी कहीं मजदूरी मिलती तो इंकार न करती।

सांड निगौड़ा सारे दिन पोली में पड़ा ताश खेलता रहता। हुक्का गुड़गुड़ाता रहता। कभी पैसे हाथ लग जाते तो दारू पीकर उसे पीटता, यही सब सरसों को अच्छा न लगता।

आज रात भी सांड के पांव लड़खड़ाते उसने देखा तो सब समझ गई। जान गई शादी में मिले पचास रूपये उसने चुरा लिए होगें।

वह घबरायी नहीं- सामने आकर बोली-’मेरे पचास रुपये कहां हैं?’

‘मेरे पेट में’ उसका स्वर लड़खड़ा रहा था।

‘ऐसी आग लगती है तो कमाता क्यों नहीं।’

‘हरामजादी, अपनी कमाई का इतना घमण्ड’ हाथ उठ गया उसका।

‘अरे भड़वे हाथ न लगाना, नहीं तो सारी हेकड़ी निकाल दूंगी’ भारी हो गई थी वह।

‘साली कुत्तिया’ मैं जा रहा हूं घर से... सहमकर उसका हाथ बाहर निकल गया।

एकक्षण सरसों खड़ी सोचती रही पर फिर निश्चिन्त होकर अन्दर की ओर चल पड़ी-मरखने सांड को रखने से अच्छा है वह अकेली ही रह लेगी।


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