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मूछोंवाली

मधुकान्त

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9835
आईएसबीएन :9781613016039

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‘मूंछोंवाली’ में वर्तमान से दो दशक पूर्व तथा दो दशक बाद के 40 वर्ष के कालखण्ड में महिलाओं में होने वाले परिवर्तन को प्रतिबिंबित करती हैं ये लघुकथाएं।

66

ढाबे की दाल


एक मास बाद ट्रक ड्राइवर राजू अपने घर लौटा था। रात के प्रथम पहर अपने घर में एक साथी के साथ बैठा शराब पी रहा था। जैसे ही नशे का असर होने लगा उसने अपनी पत्नी को आवाज लगाई-’खाने में क्या बनाया है?’

‘दाल-रोटी।’

‘बस...’ उसकी आंखे लाल हो गई थी।

‘बाजार, से कुछ लाकर दिया था जो बनाती। घर में दाल पड़ी थी सो बना दी।’ उसकी लाल आंखें देखकर अब पत्नी को भय नहीं लगता था। शादी के कुछ वर्षों तक वह उसकी मोटी, लाल आंखों तथा लम्बे तगड़े शरीर से निकली कर्कश आवाज सुनकर सहम जाती थी।

पति-पत्नी के बीच बढ़ते तनाव को देख साथी खिसक गया। पत्नी ने खाने की थाली लाकर उसके पास रख दीं।

वह फिर चिल्लाया-’सब्जी में कहीं दाल का दाना भी है। एक-एक दाना गोता मारकर खोजना पड़ेगा...।’

‘तेरे मुंह को लग गयी ढाबे की दाल, अब घर की दाल क्यूं अच्छी लगेगी...।’

‘साली बहुत बक-बक करने लगी है।’ क्रोधसे उसने थाली को उसकी ओर फेंक दिया। चारपाई से उठा तो उसके पांव लड़खड़ाने लगे।

पत्नी ने उसे बलपूर्वक चारपाई पर बैठा दिया-’कान खोल के सुन ले, ढाबे की दाल खा-खा के तनै अपने शरीर का नाश कर लिया। तेरे शरीर में बिमारी के कीड़े पैदा हो रहे सै, किसे दिन तूं मनै भी कीड़ों वाली बनावैगा। कल चुपचाप मेरे साथ अस्पताल में चालिए।’ पत्नी ने लताड़ते हुए कहा।

धीरे-धीरे दोनों की आंखों में लाली पिघलने लगी।


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