व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्रश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
मन को संतुलित रखकर प्रसन्नता भरा जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्रों को इस पुस्तक में सँजोया गया है
खरच करने से पहले सोचिए
जब मनुष्य रूप में जन्म लिया है, तो सुखपूर्वक और ढंग से जीने का अधिकार भी स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इस के लिए युग चाहे कोई भी, कैसा भी क्यों न रहा हो, धन की आवश्यकता अवश्य बनी रहती है। धनाभाव से सुखपूर्वक तो क्या सामान्य जीवन में जी पाना कतई संभव नहीं हुआ करता, परंतु साथ ही यह भी जरूरी है कि अपने सभी तरह के आय स्रोतों से आज और आने वाले कल में संतुलन बनाए रखकर ही व्यक्ति सुख-चैन का जीवन जी सकता है। कल के लिए धनसंचय के लिए जरूरी है, आज की मितव्ययता। जो व्यक्ति अपने जीवन की आवश्यकताओं को सीमित रखता है, वही मितव्ययी है। कबीर जैसे संत ने भगवान से नम्र निवेदन किया था-
''साईं इतना दीजिए जामें कुटुम समाय,
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाय।।''
अर्थात् हे ईश्वर! इतना धन तो अवश्य दो, जिससे मेरे घर- परिवार का ठीक से निर्वाह हो सके और कोई साधु-संत अर्थात् अतिथि घर पर आ जाता है, तो उसकी सेवा-सुश्रूषा भी संभव हो सके। जीवन के हर क्षेत्र में, परिवार में, व्यवहार में, धन आवश्यक है पर अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखना और अपनी शक्ति द्वारा उनको पूरा करना बड़ा सुखद है। अपनी आवश्यकताओं की काट-छाँट करने और मितव्ययी होने के लिए बुद्धि खरच करनी पड़ती है।
महात्मा गाँधी अत्यंत सूक्ष्मदर्शी महापुरुष थे। उनका सिद्धांत था कि एक मनुष्य को उतना ही भोजन करना चाहिए जितना जीने के लिए आवश्यक है और एक व्यक्ति को उतने ही वस्त्र पहनने चाहिए जितने शरीर रक्षा के लिए आवश्यक हैं और सामान भी उतना ही रखना चाहिए जितना वह स्वत: उठाकर कहीं ले जा सके। अपनी आवश्यकता और वस्तुओं को इस प्रकार बढ़ा लेना कि दूसरों का आश्रित हो जाना पड़े, अत्यंत लज्जास्पद है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book