व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्रश्रीराम शर्मा आचार्य
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मन को संतुलित रखकर प्रसन्नता भरा जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्रों को इस पुस्तक में सँजोया गया है
हिंदू विश्वविद्यालय के
भीष्म पितामह श्यामचरण डे का नाम किसने नहीं सुना। डे बाबा सात्विकता और
मितव्ययता की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपने जीवन की आवश्यकताओं को अत्यंत
सीमित बना लिया था। वास्तव में वे जीने के लिए भोजन करते थे और शरीर की
रक्षा के लिए वस्त्र पहनते थे। लोगों का कहना है कि वे भोजन भी नाप-तौलकर
करते थे। यहाँ तक कि प्रतिदिन की भाजी के लिए आलू भी वे गिनकर देते थे,
परंतु इस महापुरुष ने अपनी संपूर्ण स्वअर्जित तथा पैतृक संपत्ति
विश्वविद्यालय को अर्पण कर दी। जीवनभर वेतन के रूप में विश्वविद्यालय से
वे केवल एक रुपया ही वेतन लेते रहे। यदि डे बाबा ने इस प्रकार
मितव्ययतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत न किया होता, तो क्या वे इतना महान
त्याग कर सकते थे। विश्वविद्यालय का निर्माण और उसकी नींव की दृढ़ता ऐसे
महान त्यागियों के दान पर ही आश्रित है।
कुछ दिनों तक चाहे कष्ट
ही क्यों न उठाना पड़े, परंतु ऋण से सदा बचना चाहिए। एक लोकोक्ति है कि ऋण
का भार लेकर प्रातःकाल उठने से अच्छा है, रात में बिना भोजन किए ही
व्यक्ति सो जाए। ऋण लेने के समय बड़ा आनंद आता है, परंतु उसका देना उतना ही
कष्टकर और अप्रिय प्रतीत होता है। मनुष्य उपकारों से उऋण हो सकता है, वह
तृष्णा के बंधन को तोड़कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है, परंतु ऋण का बंधन बड़ा
ही दुःखद होता है। ऋण जीवन का महान घुन है, यह सुख-शांति और शक्ति का
सर्वनाश करता है।
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