रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |
|
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
भरत सनेह सील ब्रत नेमा।
सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।
देखि नगरबासिन्ह कै रीती।
सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीति।।2।।
सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।
देखि नगरबासिन्ह कै रीती।
सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीति।।2।।
वे सब भरत जी के प्रेम, सुन्दर स्वभाव, [त्यागके] व्रत और
नियमों की अत्यन्त प्रेमसे आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं। और नगरनिवासियों की
[प्रेम, शील और विनयसे पूर्ण] रीति देखकर वे सब प्रभुके चरणोंमें उनके
प्रेमकी सराहना कर रहे हैं।।2।।
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए।
मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे।
इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।3।।
मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे।
इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।3।।
फिर श्रीरघुनाथजीने सब सखाओंको बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि
के चरणों में लगो। ये गुरु वसिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की
कृपा से रणमें राक्षस मारे गये हैं।।3।।
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहँ बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।4।।
भए समर सागर कहँ बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।4।।
[फिर गुरुजीसे कहा-] हे मुनि! सुनिये। ये सब मेरे सखा हैं। ये
संग्रामरूपी समुद्र में मेरे लिये बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के
लिये इन्होंने अपने जन्मतक हार दिये। (अपने प्राणोंतक को होम दिया)। ये मुझे
भरतसे भी अधिक प्रिय हैं।।4।।
To give your reviews on this book, Please Login