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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

महर्षि वेदव्यास

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तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।27
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।।27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध।।

यदि यह युद्ध न होकर केवल एक क्रीड़ा मात्र ही होती, तब भी हम आजकल के खेलों के समय होने वाले मान अथवा अपमान के अपने अनुभवों से उस युद्ध क्षेत्र में उपस्थित लोगों की मनःस्थिति को समझ सकते हैं, परंतु यह भीषण युद्ध क्रीड़ा मात्र नहीं था। बल्कि इस भयंकर युद्ध में जो लोग आपस में लड़ने वाले थे, वे सभी आपस में सम्बन्धी अथवा मित्र थे। इनमें से न जाने कितने लोग मृत्यु को प्राप्त होने वाले थे। यदि भारत में घटी ऐतिहासिक घटनाओं को स्मरण करें तब यह तो समझ में आता है कि क्षत्रिय लोग अपने मान-सम्मान अथवा अपनी बात को रखने के लिए अपना जीवन होम कर देते रहे हैं। इसीलिए क्षत्रियों के लिए युद्ध सम्मान-जनक बात ही नहीं बल्कि उनके क्षत्रियत्व का मूलभूत कारण बन जाता है। इसलिए उस युद्ध में उपस्थित अधिकांश योद्धा क्षत्रियोचित उत्तेजना में रहे होंगे। महाभारत के युद्ध के पहले दिन, जिस समय युद्ध प्रारंभ होने वाला था, उस समय तक अर्जुन निश्चित रूप से युद्धोचित उत्तेजना के प्रभाव में था, परंतु अब इस समय अपने समक्ष खड़े हुए और युद्ध के लिए तत्पर योद्धाओँ के मुखों को देखकर और उनमें अपने मित्रों और परिवारजनों के इस युद्ध की विभीषिका में मारे जाने की आशंका पहली बार उसके मन में उत्पन्न होती है।

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