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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

महर्षि वेदव्यास

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पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां दुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।3।।

हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।।3।।

द्रोणाचार्य के शिष्यों में अर्जुन और धृष्टद्युम्न प्रमुख श्रेणी के छात्र थे। गुरु और शिष्य के बीच का संबंध उतना ही फलदायी होता है जितना कि दोनो पक्षों ने इस दिशा में प्रयास किया होता है। द्रोणाचार्य के शिष्य तो सभी थे, फिर अर्जुन और धृष्टद्युम्न ही क्यों प्रथम श्रेणी के शिष्य बने? कौरवों के सभी भाइयों को समान सुविधा उपलब्ध थी, तब युद्ध आरंभ होने के पहले दुर्योधन यहाँ द्रोणाचार्य को यह क्यों कहता है कि आपके शिष्य धृष्टद्युम्न के नेतृत्व में सजी हुई पाण्डवों की सेना को देखिए? क्या वह द्रोणाचार्य को यह याद दिलाना चाहता है कि द्रुपद उनके शत्रु हैं, इस प्रकार उनका क्रोध अधिक भड़काकर पाण्डवों को अधिकाधिक क्षति पहुँचाना चाहता है, अथवा द्रोणाचार्य की भर्त्सना करना चाहता है कि आपने अपने शिष्यों अर्जुन और धृष्टद्युम्न को इतनी अधिक युद्ध विद्या सिखा दी कि अब वे हमारे (और द्रोणाचार्य के) लिए समस्या बन गये हैं। इन दोनो के सांथ ही शिक्षा ग्रहण करने के कारण दुर्योधन को इस तथ्य का गहन अनुभव है कि धृष्टद्युम्न कितना जुझारु और वीर योद्धा है! यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि पाण्डवों की 7 अक्षोहिणी सेना, कौरवों की 11 अक्षौहिणी सेना के समक्ष छोटी है, पर युद्ध के लिए इतनी छोटी भी नहीं है। इसी लिए वह कहता है पाण्डवों की भारी सेना को देखिए।

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