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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।3।।


इसलिये हे अर्जुन! तुम नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा।।3।।

अर्जुन को विषाद की अवस्था से झकझोर कर निकालने के लिए भगवान् उसे “नपुंसक” शब्द से संबोधित करते हैं। ऐसा संबोधन, जो कि किसी भी साधारण योद्धा के लिए गंभीर अपमानजनक संबोधन है। अर्जुन जैसे शूरवीर के लिए इस संबोधन का प्रयोग तो संभवतः कृष्ण जैसा अभिन्न मित्र ही कर सकता है। यदि कोई और ऐसी धृष्टता करने की सोचे भी, तो उसे अपने जीवन तक से हाथ धोना पड़ सकता है। क्लैब्यं अर्थात् पुरुष के चिह्न से विमुक्त व्यक्ति अर्थात् हिजड़ा!

पार्थ तुममें इस अकर्मण्यता और तर्कहीन धारणा का जन्म कैसे हुआ? जीवन में तुम्हारा जिन उच्च विचारों में विश्वास है, उनको त्यागकर, तुम अपने अस्तित्व को ऐसी क्षुद्र अवस्था में मत जाने दो। बल्कि, शत्रुओं को अपने बाणों और धनुष की सहायता से क्षति पहुँचाने के लिए प्रस्तुत हो जाओ।

इस समय तक लगता है कि कृष्ण, अर्जुन की अवस्था को क्षणिक ही मानकर उसे उसी तरह समझाते हैं, जैसे कि हम साधारण परिस्थितियों में अपने किसी मित्र को इस प्रकार का व्यवहार करते देख उसे उलाहना देते हैं। इस विचार से कृष्ण, अर्जुन को परंतप, अर्थात् ऐसा व्यक्ति, जो कि अपने शत्रुओँ को बहुत पीड़ा देने वाला होता है, उन पर दृढ़ता से विजय प्राप्त कर लेता है, इस नाम से बुलाते हैं।  भगवान् अर्जुन को परंतप के नाम से संबोधित इसलिए करते हैं, ताकि उसे मन की दुर्बलता समाप्त हो जाये और उसे अपनी स्वाभाविक वीरता का स्मरण हो सके। इस प्रकार वह परंतप योद्धा की तरह व्यवहार करे, न कि एक नपुंसक और दुर्बल व्यक्ति की भाँति!

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