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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।25।।

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू यह समझ कि ज्ञानी लोग इसके विषय में शोक नहीं करते हैं ।। 25।।

जो इस संसार में व्यक्त होता है, वह शरीर है, मन है, बुद्धि है। जो व्यक्त नहीं होता वह आत्मा है, चूँकि यह व्यक्त नहीं होता, इसलिए उस पर अन्य व्यक्त (भौतिक) वस्तुओँ की तरह विचार (चिंतन) नहीं किया जा सकता है। व्यक्त हुई हर वस्तु में विकार (जन्म, वृद्धि, परिवर्तन और मृत्यु आदि) होते हैं। आत्मा जब व्यक्त ही नहीं होता तो उसमें इस प्रकार के विकार भी नहीं होते, इसी लिए उसे विकार रहित कहते हैं। आत्मा को उसके वास्तविक रूप में जान लेने के कारण ज्ञानी लोगों को आत्मा के विषय में किसी प्रकार का शोक नहीं रह जाता।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26।।

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।।26।।

भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन जिस प्रकार संसार में प्रकट हुई और इंद्रियों, मन अथवा बुद्धि से अनुभव की जाने वाली हर वस्तु की तरह सदा जन्म लेने वाली और अपना समय पूरा हो जाने पर सदा मर जाने वाली, हर वस्तु की तरह ही आत्मा को भी मानते हो, तब भी इस आत्मा के विषय में व्यक्ति को किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि,

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