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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।



क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।63।।

क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।।63।।

कामनाओं के पूर्त न होने से व्यक्ति उनके आवेश में आकर क्रोधित होता है। जब कामना छोटी अथवा क्षणिक होती है तो इस क्रोध का सम्मोहन कम समय रहता है। इस प्रकार की अवस्था में फँसा व्यक्ति कभी-कभी अपने क्रोध की दुर्बलता को समझ भी जाता है, परंतु कभी-कभी यह क्रोध विकराल रूप धारण करके व्यकित को संज्ञा-शून्य कर देता है। आपने अनुभव किया होगा, जब इस प्रकार का क्रोध व्यक्ति को आता है, तब वह पूर्णतः इसके सम्मोहन में हो जाता है और कुछ भी सोचने समझने लायक नहीं रह जाता है। इस स्थिति में उसकी स्मृति भ्रमित हो जाती है, अर्थात् उसे कुछ भी याद नहीं रह जाता है। लगभग हम सभी ने इस प्रकार के क्रोध के आवेश को कभी-न-कभी अनुभव किया ही होता है। स्मृति के लुप्त होने से बुद्धि का नाश हो जाता है। मनुष्य का मनुष्यत्व उसकी स्मृति, बुद्धि से ही जाना जाता है। जिस समय किसी व्यक्ति में स्मृति, बुद्धि, विवेक आदि न रह जायें तो उसकी अवस्था मृत व्यक्ति के समान ही होती है।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।64।।

परंतु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।।64।।

हमारी इंद्रियाँ और मन ही राग तथा द्वेष के रहने के स्थान हैं। हम सभी का अनुभव है कि जो हमारे नेत्रों को भाता है, वही हम देखना चाहते हैं। सभी सुंदर वस्तुओं, सुंदर दृश्यों आदि को देखना चाहते हैं, वहीं कुरूप या अच्छी न दिखने वाली वस्तुओँ को देखकर अपनी आँखे फेर लेते हैं। इसी प्रकार सभी सुरीला और मधुर संगीत, सुरीली वाणी सुनना चाहते हैं। यदि कर्कश ध्वनि हमारे कानों में पड़ती है तो हम उसे बड़ी कठिनाई से सहन करते हैं, जहाँ तक संभव हो शीघ्रतिशीघ्र उससे दूर हो जाना चाहते हैं। इसी प्रकार सुस्वाद भोजन और सुगंधमयी वातावरण सभी को प्रिय है। इसके विपरीत कटु स्वाद वाली वस्तुएँ और दुर्गंधपूर्ण वायु से सभी दूर रहना चाहते हैं। त्वचा में अनुभव होने वाले शीतोष्ण अनुभवों से हम सभी प्रभावित होते रहते हैं। हमारा मन इंद्रियों का संचालन करता हुआ राग और द्वेष में प्रवृत्त और निवृत्त होता रहता है। उतार-चढ़ाव वाले ये सभी  अनुभव हमको अपने जीवन में इतने स्वाभाविक लगते हैं कि हम इनके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर पाते। इन इंद्रियों और मन पर पूर्ण अधिकार हो सकना तो अत्यंत कठिन कार्य है, परंतु जैसे-जैसे आप प्रयास करके इन पर धीरे-धीरे अपना अधिकार करेंगे तो आप पायेंगे कि आपका मन शान्त होने लगता है। इस प्रकार आप जीवन को उसके संपूर्ण रूप में आनन्दपूर्वक ढंग से बिता पायेंगे, जैसा आत्मस्वरूप में स्थित योगी करते हैं।

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