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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।21।।

हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?।।21।।

परमात्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा, न व्यय (क्षय) होने वाला समझ जाने वाला व्यक्ति यह भी समझ जाता है कि वह परमात्मा न किसी को मारता है और न स्वयं मारा जाता है। कथं अर्थात् कोई ऐसा सोच या कह भी कैसे सकता है कि परमात्मा मारने या मरने वाली वस्तु है? अविनाशी अर्थात् जिसका नाश न हो, नित्य अर्थात् हर समय उपलब्ध, अजन्मा अर्थात् जिसका जन्म न हुआ हो, अव्यय अर्थात् जो समय के साथ भग्न अथवा क्षरित न हो। इन सभी विशेषणों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि आत्मा कभी भी मरता नहीं। आत्मा के विषय में जानने वाला व्यक्ति उसके इन गुणों से यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि आत्मा के मरने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए उसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा को मारना ही संभव नहीं इसलिए उसे मारने के बारे में सोचता भी नहीं।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।

जैसे मनुष्य पुराने अथवा जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करता है।।22।।

उत्सव अथवा अन्य प्रयोजनों के अवसर पर धारण किये गये नये वस्त्र जब जीर्ण अथवा अनुपयुक्त हो जाते हैं तब व्यक्ति उन्हें स्वेच्छा से त्याग देता है। इस त्याग में उसे किसी प्रकार का कष्ट अथवा दुःख नहीं अनुभव होता है, बल्कि इस त्याग से प्रसन्नता ही होती है। इसी प्रकार जरावस्था, रोग अथवा किसी दुर्घटना में छत हुए शरीर की अवस्था पुराने वस्त्र की तरह हो जाती है, इसलिए उसे त्यागने में कैसा दुःख। जीवात्मा अपने प्रारब्ध कर्मो के फलस्वरूप बने कारण शरीर के कारण नवीन और भिन्न-भिन्न प्रकार सूक्ष्म और स्थूल शरीरों में व्यक्त और क्षीण होता रहता है।

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