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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।4।।


अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।।4।।

अर्जुन के मन पर परंतप नाम से बुलाए जाने पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता! बल्कि वह तो अपने मन में विचार कर रहा है कि मैं परंतप हूँ, वह तो ठीक है, परंतु यह परंतप अपने प्रिय पितामह और अपने आदरणीय गुरु पर बाण कैसे चलाएगा और वह भी इतने बाण कि वे अशक्त अथवा मृत्यु को प्राप्त हो जायें। भारतीय संस्कारों में हमें सिखाया जाता है कि अपने पूजनीय व्यक्तियों का आदर करना चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिए, न कि उन पर बाण चलाने चाहिए। अर्जुन का विरोध तो दुर्योधन और उसे, उसके इस कार्य में उसका साथ देने वाले भाइयों से था, न कि पितामह और गुरुजनों से! यह अलग बात है कि, ये सभी अग्रजन इस विरोध में अर्जुन का पक्ष लेने की अपेक्षा दुर्योधन का साथ दे रहे थे। फिर भी बचपन से सीखे हुए आदर्श उसे यह नहीं सिखाते कि वह अपने आदरणीय जनों पर घातक प्रहार करे।


गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्ममपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।5।।


इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।।5।।

अपने जीवन में कभी-न-कभी हम सभी अपने अभिभावकों और वृद्ध परिजनों तथा परिवार के अन्य लोगों से विद्रोह कर बैठते हैं। गुरुजन और अन्य वृद्ध परिवारजनों को हानि पहुँचाना, यहाँ तक कि उन्हें मृत्यु द्वार तक पहुँचा देना तो, अत्यंत घोर कुकृत्य हुआ! अर्जुन कहता है कि परिजनों को मारने से, भिक्षा का अन्न ग्रहण करना अधिक कल्याणकारक है। भिखारी तो समाज का अनुपयोगी व्यक्ति होता है। अर्जुन जैसा महत्वाकाँक्षी और योग्य व्यक्ति भी भावनाओँ के प्रभाव अपने गुरुजनों को मारने की अपेक्षा समाज का बोझ बनना अधिक श्रेयस्कर कार्य समझने लगा है। अपनी बात पर अधिक बल डालने के लिए वह नाटकीय ढंग से कहता है कि अपने परिजनों का रुधिर बहाकर अंततोगत्वा यदि मेरी जीवन क्षीण करने वाली इच्छाएँ पूरी हो भी गईं तो उससे क्या लाभ?


न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।6।।


हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।।6।।

अर्जुन अब पूर्णतया किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका है। इस परिस्थिति में उसे अब कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। युद्ध में अपनी विजय या पराजय दोनों ही के बारे में वह आश्वस्त नहीं है। अर्जुन को किंचित् आश्चर्य भी होता है कि जिन लोगों को मारने की अपेक्षा जीवन धारण करने की जिजीविषा का त्याग करना उसे अधिक श्रेयस्कर लग रहा है, वे ही उसे मारने के लिए उद्यत हैं।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।7।।


इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित ही कल्याणकारक हो, वही मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिये मैं आपकी शरण में हूँ, मेरा सही मार्गनिर्देशन कीजिए।।7।।

अर्जुन को अपनी वीरता के विषय में कोई शंका नहीं है, लेकिन इस समय उसे कायर होने का अनुभव हो रहा है। इस विचार के परिणामस्वरूप वह समझ जाता है, कि उसकी बुद्धि सही ढंग से कार्य नहीं कर रही है। इस कायरता के कारण ही उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। मानसिक दुविधा से ग्रस्त व्यक्ति, यदि अपनी दुविधा दूर करने में असमर्थ हो तो उसे किसी विद्वान व्यक्ति से परामर्श लेना चाहिए। अर्जुन अपनी दुविधापूर्ण स्थिति को समझकर अब भगवान की शरण में जाता है और उनसे कहता है कि वह उनका शिष्य है, तथा उनसे मार्ग दर्शन माँगता है।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।8।।


क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।8।।

गंभीर रूप से किंकर्तव्यविमूढ़ होने की अवस्था में कभी-कभी हमें अनुभव होता है जैसे मष्तिष्क संज्ञाशून्य हो गया हो, इस अवस्था में मुख सूखने लगता है, कान सुनना बन्द कर देते हैं, आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। मनःस्थिति इतनी विकल हो जाती है कि धन, सुख-सुविधा और राज्याधिकार आदि भी अर्थहीन हो जाते हैं। अर्जुन इसी प्रकार की मनःअवस्था में पहुँच गया है। वह स्पष्ट रूप से अनुभव कर रहा है कि धान्य से संपन्न राज्य और अपरिमित दैवीय शक्तियाँ प्राप्त होने की संभावना होने के पश्चात् भी मन अत्यंत व्याकुल हो गया है। उसे अपना जीवन अर्थहीन लगने लगता है।

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