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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।।7।।

हमारी कर्मेन्द्रियाँ स्वभाव से ही बहिर्मुखी हैं। उनका कार्य ही बाहर की जानकारी ग्रहण करके मन और बुद्धि तक पहुँचाना है। इसी प्रकार मन और बुद्धि का कार्य है इस जानकारी का समुचित उपयोग करना। इसलिए इंद्रियों को नियंत्रित करके मन को साधना बिलकुल वैसा ही जैसे नौकर अपने मालिक पर नियंत्रण करना चाहें। कर्मेन्द्रियो की स्वामी है ज्ञानेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है मन। यदि मन को ज्ञान और ध्यानाभ्यास से साधा जाये तो वह धीरे-धीरे अनासक्त होने लगता है। इस प्रकार अनासक्त हुए व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ नियंत्रण में आकर उसे श्रेष्ठ जीवन जीने की क्षमता प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए आपको एक निश्चित प्रकार का भोजन अत्यधिक रुचिकर है। स्वाभाविक है कि आप इसे बार-बार ग्रहण करना चाहेंगे। परंतु स्वाद से इतर जाकर यदि आप अपनी बुद्धि के माध्यम से मन को समझा सकें तो आप स्वादेन्द्रिय के वश में न होकर उसके स्वामी होंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे अभ्यास करके वह अपनी आसक्ति पर नियंत्रण कर सकता है। इस प्रकार इंद्रियों को नियंत्रण में रखकर अनासक्त होकर किए गए कर्मों को कर्मयोग कहते हैं।

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