लोगों की राय

श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)



न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।


मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता1 को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।।4।।

(1. जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।)

जीवन का प्रारम्भ कर्मों से ही होता है। बच्चा भूख लगने पर रोने या चिल्लाने का कर्म करता है। माँ उसे खिलाने और पालने का कर्म करती है। पिता परिवार के लिए जीविकोपार्जन का कर्म करता है। सैनिक देश की सुरक्षा का कर्म करता है। वैज्ञानिक अनुसंधान का कर्म करता है। देश का प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति देश का नेतृत्व करने का कर्म करता है। कर्म जीवन का न केवल आवश्यक अंग हैं, बल्कि जीवन कर्मों की एक अनवरत कड़ी है। इसलिए यदि कोई यह सोचता है कि बिना कर्म किये उसका कार्य चल सकता है तो यह संभव नहीं है। यह सर्वविदित है कि जो कर्म हम अपनी इच्छा के अनुसार पूरे मन से करते हैं, वे हमें कर्म न लगकर मनोरंजन लगते हैं, इसी प्रकार मनोरंजन के लिए गए कर्म भी यदि अनिच्छा से किये जायें तो वे भी भारी लगने लगते है। कर्म किये बिना कर्मो से योग संभव नहीं है। इस प्रकार कर्मयोग से ही योगनिष्ठा होती है। कर्महीन जीवन संभव ही नहीं है। इसलिए कर्मत्याग भी संभव नहीं है। हम किसी विशेष प्रकार के कर्मों का त्याग कर सकते हैं, सारे कर्मो का त्याग तो मृत्योपरांत ही संभव है। शारीरिक कर्म तो फिर भी रोके जा सकते हैं, परंतु मानसिक कर्म रोकना तो बहुत सिद्ध योगियों के लिए भी बहुत थोड़े समय के लिए ही संभव है। उन्हें भी इस क्षणिक समय के अनुभव के पश्चात् मानसिक कर्मों के लिए विवश होना पड़ता है। इस प्रकार कर्मों का त्याग केवल नाममात्र के लिए होता है, क्योंकि चेतन प्राणी के लिए इसका कोई विकल्प नहीं है। सांख्ययोग संख्या शब्द से उत्पन्न हुआ है, संख्या का सामान्य अर्थ तो गणना के लिए किया जाता है, परंतु यहाँ संख्या शब्द का एक अन्य अर्थ प्रयुक्त हुआ है। संख्या का अर्थ मनन, आत्मावलोकन अथवा तर्क होता है। अर्थात् यह समझना अत्यंत सरल है कि कर्मों के त्याग से व्यक्ति स्वतः सांख्ययोगी नहीं बन सकेगा। यदि सांख्ययोगी ही नहीं बन सकेगा तो मन की समाधि अवस्था तक पहुँचना ही असंभव है।

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login