चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री |
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
ग्यारहवाँ बयान
सूर्य-भगवान अस्त होने को जल्दी कर रहे हैं। शाम को ठण्डी हवा अपनी चाल दिखा रही है। आसमान साफ़ है क्योंकि अभी-अभी पानी बरस चुका है और पछुआ हवा ने रुई के पहल की तरह जमें हुए बादलों को तूम-तूमकर उड़ा दिया। अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा ने आसमान पर अपना दख़ल जमा लिया है और निकले हुए इन्द्रधनुष पर जिला दे उसके रंगदार जौहर को अच्छी तरह उभाड़ रक्खा है। बाग की रविशों पर जिन पर कूदरती भिश्ती अभी घण्टे-भर हुआ छिड़काव कर गया है, घूम-घूमकर देखने से धुले-धुलाये रंग-बिरंगे पत्तों की कैफ़ियत और उन सफेद कलियों की बहार दिल और जिगर को क्या ही ताकत दे रही है जिनके एक तरफ़ का रंग तो असली मगर दूसरा हिस्सा अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा पड़ने से ठीक सुनहला हो रहा है। उस तरफ़ से आये हुए खुशबू के झपेटे कहे देते हैं कि अभी तक तो आप दृष्टान्त ही में अनहोनी समझकर कहा-सुना करते थे मगर आज, ‘सोने और सुगन्ध’ वाली कहावत देखिए अपनी आँखों के समाने मौजूद ये अधखिली कलियाँ सच किये देती हैं। चमेली की टट्टियों में नाजुक-नाजुक सफेद फूल तो खिले हुए हई हैं मगर कहीं-कहीं पत्तियों में से छनकर आयी हुई सूर्य की आखिरी किरणें धोखे में डालती हैं। यह समझकर कि आज इन्हीं सुफेद चमेलियों में जर्द चमेली भी खिली हुई है शौक-भरा हाथ बिना बढ़े नहीं रहता। सामने की बनायी हुई सब्जी जिसकी दूब सावधानी से काटकर मालियों ने सब्ज मखमली फ़र्श का नमूना दिखला दिया है, आँखों को क्या तरावट दे रही है। देखिए उसी के चारों तरफ़ सजे हुए गमलों में खुशरंग पत्तोंवाले छोटे-छोटे जंगली पौधे अपने हुस्न और जमाल के घमण्ड में कैसे ऐंठे जाते हैं। हर एक रविशों और क्यारियों के किनारे गुलमेंहदी के पेड़ ठीक पल्टनों की कतार की तरह खड़े दिखायी देते हैं, क्योंकि छुटपने ही से उनकी फैली हुई डालियाँ काटकर मालियों ने मन-मानी सूरतें बना डाली हैं। कहने ही को सूरजमुखी का फूल सूर्य की तरफ़ घूमा रहता है मगर नहीं यहाँ तो देखिये सामने सूर्यमुखी के कितने ही पेड़ लगे हैं जिनके बड़े-बड़े फूल अस्त होते हुए दिवाकर की तरफ़ पीठ किये हसरत-भरी निगाहों से देखती हुई उस हसीन नाज़नीन के अलौकिक रूप की छटा देख रहे हैं जो उस बाग के बीचोंबीच बने हुए कमरे की छत पर खड़ी उसी तरफ़ देख रही है जिधर सूर्य भगवान अस्त होते दिख रहे हैं। उधर ही से बाग़ में आने का रास्ता है, मालूम होता है वह किसी आने वाले की राह देख रही है, तभी तो सूरेय की किरणों को सहकर भी एक टक उधर ही ध्यान लगाये हैं।
इस कमसिन परीजमाल का चेहरा पसीने से भर गया मगर किसी आने वाले की सूरत न देख पड़ी। घबराकर बायें हाथ अर्थात दक्खिन तरफ़ मुड़ी और उसी बनावटी छोटे-से पहाड़ को देखकर दिल बहलाना चाहा जिसमें रंग-बिरंगे खुशनुमा पत्तोंवाले करोटन, कौलियस, बरबीना, बिगुनिया, मौस इत्यादि पहाड़ों पर के छोटे-छोटे पौधे बहुत ही कारीगिरी से लगाये हुए थे, और बीच में मौके-मौके से घुमा-फिराकर पेड़ों को तरी पहुँचाने और पहाड़ी की खूबसूरती को बढ़ाने के लिए, नहर काटी हुई थी, ऊपर ढाँचा खड़ा करके निहायत खूबसूरत रेशमी जाल इसलिए डाला हुआ था कि हर तरह की बोलियों से दिल खुश करने वाली उन रंग-बिरंगी नाजुक चिड़ियों के उड़ जाने का खौफ न रहे जो उनके अन्दर छोड़ी हुई हैं और इस समय शाम होते देख अपने घोसलों में जो पत्तों के गुच्छो में बनाये हैं जा बैठने के लिए उतावली हो रही हैं।
हाय इस पहाड़ी की खूबसूरती से भी उसका परेशान और किसी की जुदाई में व्याकुल दिन न बहला, लाचार छत के ऊपर की तरफ़ खड़ी हो उन तरह-तरह के नक्शोंवाली क्यारियों को देख अपने घबड़ाये हुए दिल को फुसलाना चाहा, जिनमें नीले-पीले, हरे लाल चौरंगे नाजुक मौसमी फूलों के छोटे-छोटे तख्ते सजाये हुए थे जिनके देखने से बेशक़ीमती गलीचे का गुमान हो रहा था जिसके बारीक धारों का जाल दूर-दूर तक फैल रहा था। रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़-उड़कर उन रंगीन फूलों पर इस तरह बैठती थीं कि फूलों में और उनमें बिल्कुल फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता था, जब तक कि वे फिर से उड़कर किसी दूसरे फूलों के गुच्छों पर न जा बैठतीं।
इन फूलों और फ़ौवारों के छीटों ने भी उसके मन की कली न खिलायी, लाचार वह पूरब तरफ़ आयी और अपनी उन सखियों की कार्रवाई देखने लगी जो चुन-चुनकर खुशबूदार फूलों के गजरों और गुच्छों के बनाने में अपने नाज़ुक हाथों को तकलीफ दे रही थीं। कोई अंगूर की टट्टियों में घुसकर लाल पके हुए अँगूरों की ताक में थी, कोई पके हुए आम तोड़ने की धुन में उन पेड़ों की डालियों तक लग्धे पहुँचा रही थी, जिनके नीचे चारों तरफ़ गड़हे खुदवाकर इसलिए जल से भरवा दिये गये थे कि पेड़ से गिरे हुए आम चुटीले न होने पावें।
अब सूर्य की लालिमा बिलकुल जाती रही और धीरे-धीरे अँधेरा होने लगा। वह बेचारी किसी तरह अपने दिल को न बहला सकी बल्कि अँधेरे में बाग के चारों तरफ़ बड़े-बड़े पेड़ों की सूरत डरावनी मालूम होने लगी, दिल की धड़कन बढ़ती ही गयी, लाचार वह छत के नीचे उतर आयी और एक सजे-सजाये कमरे में चली गयी।
इस कमरे की सजावट मुख्तसर ही थी, एक झाड़ और दस-बारह हाँडियाँ छत से लटक रही थीं, चारों तरफ़ दुशाखी दीवारगीरों में मोमबत्तियाँ जल रही थीं, ज़मीन पर फ़र्श बिछा हुआ था और एक तरफ़ गद्दी लगी हुई थी जिसके आगे दो फ़र्शी झाड़ अपनी चमक-दमक दिखा रहे थे, उनके बगल ही में एक मसहरी थी जिस पर थोड़े से खुशबूदार फूल और दो-तीन गजरे दिखायी दे रहे थे। अच्छे-अच्छे कपड़ों और गहनों से दिमाग़दार बनी हुई दस-बारह कमसिन छोकरियाँ भी इधर-उधर घूमकर ताखों (आलों) पर रक्खे हुए गुलदस्तों में फूलों के गुच्छे सजा रही थी।
वह नाज़नीन जिसका नाम किशोरी था कमरे में आयी मगर गद्दी पर न बैठकर मसहरी पर जा लेटी और आँचल से मुँह ढाँप न मालूम क्या सोचने लगी। उन्हीं छोकरियों में से एक पंखा झलने लगी, बाक़ी अपने मालिक को उदास देख सुस्त खड़ी हो गयीं मगर निगाहें सभों की मसहरी की तरफ़ ही थीं।
थोड़ी देर तक इस कमरे में सन्नाटा रहा, इसके बाद किसी आनेवाले की आहट मालूम हुई। सभों की निगाह सदर दरवाजे की तरफ़ घूम गयी, किशोरी ने भी मुँह फेरा और उसी तरफ़ देखने लगी। एक नौजवान लड़का सिपाहियाना ठाठ से कमरे में आ पहुँचा जिसे देखते ही किशोरी घबराकर उठ बैठी और बोली—
‘‘कमला, मैं कब से राह देख रही हूँ! तैने इतने दिन क्यों लगाये?’’
पाठक समझ गये होंगे कि यह सिपाहियाना ठाठ से आने वाला नौजवान लड़का असल में मर्द नहीं है बल्कि कमला के नाम से पुकारी जाने वाली कोई ऐयारा है।
कमला : यही सोच के मैं चली आयी कि तुम घबरा रही होगी नहीं तो दो दिन का काम और था।
किशोरी : क्या अभी पूरा हाल मालूम नहीं हुआ?
कमला : नहीं।
किशोरी : चुनार में तो हलचल खूब मची होगी!
कमला : इसका क्या पूछना है! मुझे भी जो कुछ थोड़ा-बहुत हाल मिला वह चुनार ही में।
किशोरी : अच्छा क्या मालूम हुआ?
कमला : बूढ़े सौदागर की सूरत बन जब मैं तुम्हारी तस्वीर जड़ी आँगूठी दे आयी उसी समय से उनकी सूरत शक्ल, बातचीत और चालढाल में फ़र्क़ पड़ गया, दूसरे दिन मेरी (सौदागर की) बहुत खोज की गयी।
किशोरी : इसमें कोई शक नहीं कि मेरी आह ने अपना असर किया! हाँ फिर क्या हुआ?
कमला : उसके दूसरे या तीसरे दिन उन्हें उदास देख आनन्दसिंह किश्ती पर हवा खिलाने ले गये, साथ में एक बूढ़ा नौकर भी था। बहाव की तरफ़ कोस डेढ़-कोस जाने के बाद किनारे के जंगल से गाने-बजाने की आवाज़ आयी, उन्होंने किश्ती किनारे लगायी और उतरकर देखने लगे। वहाँ तुम्हारी सूरत बन माधवी ने पहिले ही जाल फैला रक्खा था, यहाँ तक कि उसने अपना मतलब साध लिया और न मालूम किस ढंग से उन्हें लेकर गायब हो गयी। उस बूढ़े नौकर की जुबानी जो उसके साथ गया था मालूम हुआ कि माधवी के साथ कई औरतें भी थीं जो इन दोनों भाइयों को देखते ही भागीं। आनन्दसिंह उन औरतों के पीछे लपके लेकिन वे भुलावा देकर निकल गयीं और आनन्दसिंह ने लौटकर आने पर अपने भाई को भी न पाया, तब गंगा किनारे पहुँची डोंगी पर बैठे हुए ख़ितमदगार से सब हाल कहा।
किशोरी : यह कैसे मालूम हुआ कि माधवी ने मेरी सूरत बनाकर धोखा दिया?
कमला : लौटती समय जब मैं उस जंगल से कुछ इधर निकल आयी जो अब बिल्कुल साफ़ हो गया है, तो ज़मीन पर पड़ी हुई एक जड़ाऊ ‘कंकनी’ नज़र आयी। उठाकर देखा। मैं उस कंकनी को खूब पहिचानती थी, कई दफे माधवी के हाथ में देख चुकी थी, बस मुझे पूरा यकीन हो गया कि यह काम इसी का है, आख़िर उसके घर पहुँची और उसकी हमजोलीयों की बातचीत से निश्चय कर लिया।
किशोरी : देखो राँड़ ने मेरे साथ ही दग़ाब़ाजी की!
कमला : कैसी कुछ!
किशोरी : तो इन्द्रजीतसिंह अब उसी के घर में होंगे।
कमला- नहीं, अगर वहाँ होते तो क्या मैं इस तरह खाली लौट आती?
किशोरी : फिर उन्हें कहाँ रक्खा है!
कमला : इसका पता नहीं लगा, मैंने चाहा था कि खोज लगाऊँ मगर तुम्हारी तरफ़ ख़याल करके दौड़ी आयी।
किशोरी : (ऊँची साँस लेकर) हाय, उस शैतान की बच्ची ने मेरा ध्यान उनके दिल से निकाल दिया होगा!!
इतना कहकर किशोरी रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गयी। कमला ने उसे बहुत समझाया और क़सम खाकर कहा कि मैं अन्न उसी दिन खाऊँगी जिस दिन इन्द्रजीतसिंह को तुम्हारे पास ला बैठाऊँगी।
पाठक इस बात को जानने की इच्छा रखते होंगे कि यह किशोरी कौन है? इसका नाम हम पहिले लिख आये हैं और अब फिर कहे देते हैं कि यह महाराज शिवदत्त की लड़की है, मगर यह किसी दूसरे मौक़े से मालूम होगा कि किशोरी शिवदत्तगढ़ से बाहर क्यों कर दी गयी या बाप का घर छोड़ अपने ननिहाल में क्यों दिखायी देती है।
थोड़ी देर सन्नाटा रहने के बाद फिर किशोरी और कमला में बातचीत होने लगी।
किशोरी : कमला, तू अकेली क्या कर सकेगी?
कमला : मैं तो वह कर सकूँगी जो चपला और चम्पा के किये भी न हो सकेगा।
किशोरी : तो क्या आज तू फिर जायेगी?
कमला : हाँ ज़रूर जाऊँगी, मगर दो एक बातों का फैसला आज ही तुमसे कर लूँगी, नहीं तो पीछे बदनामी देने को तैयार होओगी।
किशोरी : बहिन, ऐसी क्या बात है जो मैं तुझी पर बदनामी देने पर उतारू हो जाऊँगी? एक तू ही तो मेरी दुःख-सुःख की साथी है।
कमला : यह सब सच है, मगर आपुस का मामला बहुत टेढ़ा होता है।
किशोरी : ख़ैर कुछ कह तो सही?
कमला : कुँअर इन्द्रजीतसिंह को तुम चाहती हो, इसी सबब से उनके कुटुम्ब भर की भलाई तुम अपना धर्म समझती हो, मगर तुम्हारे पिता से और उस घराने से पूरा बैर बँध रहा है, ताज्जुब नहीं कि तुम्हारी और इन्द्रजीतसिंह की भलाई करते-करते मेरे सबब से तुम्हारे पिता को तकलीफ पहुँचे, मगर ऐसा हुआ तो बेशक तुम्हें रंज होगा?
किशोरी : इन बातों को न सोच, मैंने तो उसी दिन अपने घर को इस्तीफा दे दिया जिस दिन पिता ने मुझे निकाल बाहर किया, अगर ननिहाल में मेरा ठिकाना न होता या मेरे नाना का उनको खौफ न होता तो शायद वे उसी दिन मुझे बैकुण्ठ पहुँचा देते। अब मुझे उस घर से रत्ती-भर मुहब्बत नहीं है। पर बहिन, तूने यह बड़ा काम किया कि उस दुष्टा को वहाँ से निकाल लायी और मेरे हवाले किया। जब मैं गम की मारी घबड़ा जाती हूँ तभी उस पर दिल का बुखार निकालती हूँ जिससे कुछ ढाँढस हो जाती है।
कमला : मुझे तो अभी तक उसके ऊपर गुस्सा निकालने का मौका ही न मिला, कहो तो आज चलते-चलते मैं भी कुछ बुखार निकाल लूँ?
किशोरी : क्या हर्ज़ है, जा ले आ!
कमला कमरे के बाहर चली गयी। उसके पीछे आधे घण्टे तक किशोरी को चुपचाप कुछ सोचने का मौका मिला। उसकी सहेलियाँ वहीं मौजूद थीं मगर किसी को बोलने का हौसला नहीं पड़ा।
आधे घण्टे बाद कमला एक क़ैदी औरत को लिए हुए फिर उस कमरे में दाखिल हुई।
इस औरत की उम्र तीस वर्ष से कम न होगी, चेहरे-मोहरे और रंगत से दुरुस्त थी, कह सकते हैं कि अगर इसे अच्छे कपड़े और गहने पहिराये जायें तो बेशक हसीनों की पंक्ति में बैठाने लायक हो, पर न मालूम इसकी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रक्खी है और किस कसूर पर क़ैदी बना डाला है।
इस औरत को देखते ही किशोरी का चेहरा लाल हो गया और मारे गुस्से के तमाम बदन थर-थर काँपने लगा। कमला ने उसकी यह दशा देख अपने काम में जल्दी की और उन सहेलियों में से जो उस कमरे में मौजूद सबकुछ देख रही थीं एक की तरफ़ कुछ इशारा करके हाथ बढ़ाया। वह दूसरे कमरे में चली गयी और एक बेंत लाकर उसने कमला के हाथ में दे दिया।
कई औरतों ने मिलकर उस क़ैदी औरत के हाथ-पैर एक साथ ही मज़बूत बाँधे और उसे गेंद की तरह लुढ़का दिया।
यहाँ तक तो किशोरी चुपचाप देखती रही मगर जब कमला कमर कसकर खड़ी हो गयी तो किशोरी का कोमल कलेजा दहल गया और इसके आगे जो कुछ होनेवाला था देखने की ताब न लगाकर वह दो सहेलियों को साथ ले कमरे के बाहर निकल बाग की रविशों पर टहलने लगी।
किशोरी चाहे बाहर चली गयी मगर कमरे के अन्दर से आती हुई चिल्लाने की आवाज़ बराबर उसके कानों में पड़ती रही। थोड़ी देर के बाद कमला किशोरी के पास पहुँची जो अभी तक बाग में टहल रही थी।
किशोरी : कहो उसने कुछ बताया या नहीं?
कमला : कुछ नहीं, ख़ैर कहाँ जाती है, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, आख़िर बतावेगी ही। अब मुझे रुखसत करो क्योंकि बहुत कुछ काम करना है!
किशोरी : अच्छा जा, मैं भी अब घर जाती हूँ नहीं तो नानी इसी जगह पहुँचकर रंज होने लगेंगी। (कमला के गले मिलकर) देख अब मैं तेरे ही भरोसे पर जी रही हूँ।
कमला : जब तक दम-में-दम है तब तक तेरे काम से बाहर नहीं हूँ।
कमला वहाँ से रवाना हुई। उसके जाने के बाद किशोरी भी अपनी सखियों के साथ वहाँ से चली और थोड़ी ही दूर पर एक बड़ी हवेली के अन्दर जा पहुँची।
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