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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

देवकीनन्दन खत्री

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौदहवाँ बयान


इन्द्रजीतसिंह ने दूसरे दिन पुनः मामूली समय पर माधवी को जाने न दिया, आधी रात तक हँसी दिल्लगी में ही काटी, इसके बाद दोनों अपने-अपने पलँग पर सो रहे। कुमार को तो खटका लगा ही हुआ था कि आज वह काली औरत आवेगी इसलिए उन्हें नींद न आया, बारीक चादर से मुँह ढाँके पड़े रहे, मगर माधवी थोड़ी ही देर में सो गयी।

वह काली औरत भी अपने मौक़े पर आ पहुँची। पहिले तो उसने दरवाज़े पर खड़े होकर झाँका, जब सन्नाटा मालूम हुआ अन्दर चली आयी और दरवाज़ा धीरे से बन्द कर लिया। इन्द्रजीतसिंह उठ बैठे। उसने अपने मुँह पर उँगली रख चुप रहने का इशारा किया और माधवी के पास पहुँचकर उसे देखा, मालूम हुआ कि वह अच्छी तरह सो रही है।

काली औरत ने अपने बटुए में से बेहोशी की बुकनी निकाली और धीरे से माधवी को सुँघा दिया। थोड़ी देर तक खड़ी रहने के बाद माधवी की नब्ज देखी, जब विश्वास हो गया कि वह बेहोश हो गयी तब उसके आँचल से ताली खोल ली और अलमारी में से सुरंग (जिस राह से माधवी आती-जाती थी) की ताली निकाल कर मोम पर उसका साँचा लिया और फिर उसी तरह अलमारी में रख ताला बन्द कर अलमारी की ताली पुनः माधवी के आँचल में बाँध इन्द्रजीतसिंह के पास आकर बोली, ‘‘मैं साँचा ले चुकी अब जाती हूँ, कल दूसरी ताली बनाकर लाऊँगी, तुम माधवी को रातभर इसी तरह बेहोश पड़ी रहने दो। आज वह अपने ठिकाने न जा सकी इसलिए सबेरे देखना कैसे घबड़ाती है।’’

सुबह को कुछ दिन चढ़े माधवी की आँख खुली, घबड़ाकर उठ बैठी। उसने अपने दिल का भाव बहुत कुछ छिपाया, मगर उसके चेहरे पर बदहवासी बनी रही जिससे इन्द्रजीतसिंह समझ गये कि रात इसकी आँख न खुली और मामूली जगह पर न जा सकी, इसका इसे बहुत रंज है। दूसरे दिन आधी रात बीतने पर इन्द्रजीतसिंह को सोता समझ माधवी अपने पलँग पर से उठी, शमादान बुझाकर अलमारी में से ताली निकाली और कमरे के बाहर हो उसी कोठरी के पास पहुँची, ताला खोल अन्दर गयी और भीतर से फिर ताला बन्द कर लिया। इन्द्रजीतसिंह भी छिपे हुए माधवी के साथ-ही-साथ बाहर निकले थे, जब वह कोठरी के अन्दर चली गयी तो यह इधर-उधर देखने लगे, उस काली औरत को भी पास ही मौजूद पाया।

माधवी के जाने के आधी घड़ी बाद काली औरत ने उसी नयी ताली से दरवाज़ा खोला जो बहूजिब साँचे के आज वह बनाकर लायी थी। इन्द्रजीतसिंह को साथ ले अन्दर जाकर फिर वह ताला बन्द कर दिया। भीतर बिल्कुल अँधेरा था इसलिए काली औरत को अपने बटुए से सामान निकाल मोमबत्ती जलानी पड़ी जिससे मालूम हुआ कि इस-छोटी-सी कोठरी में सिर्फ़ बीस-पच्चीस सीढ़ियाँ नीचे उतरने के लिए बनी हैं, अगर बिना रोशनी किये ये दोनों बढ़ते तो बेशक नीचे गिरकर अपने सर मुँह या पैर से हाथ धोते।

दोनों नीचे उतरे, वहाँ एक बन्द दरवाज़ा और मिला, वह भी उसी ताली से खुल गया। अब एक बहुत लम्बी सुरँग में दूर तक जाने की नौबत पहुँची। गौर करने से साफ़ मालूम होता था कि यह सुरंग पहाड़ी के नीचे-नीचे तैयार की गयी है, क्योंकि चारों तरफ़ सिवाय पत्थर के ईंट चूना या लकड़ी दिखायी नहीं पड़ती थी। यह सुरंग अन्दाज़ में दौ सौ गज लम्बी होगी। इसे तय करने के बाद फिर बन्द दरवाज़ा मिला। उसे खोलने के लिए यहाँ भी ऊपर चढ़ने के लिए वैसी ही सीढ़ियाँ मिली जैसी शुरू में पहिली कोठरी खोलने पर मिली थीं। काली औरत समझ गयी कि यह सुरंग खतम हो गयी और इस कोठरी का दरवाज़ा खोलने से हम लोग ज़रूर किसी मकान या कमरे में पहुँचेगे, इसलिए उसने कोठरी को अच्छी तरह देख-भालकर मोमबत्ती गुल कर दी।

हम ऊपर लिख आये हैं और फिर याद दिलाते हैं कि सुरंग में जितने दरवाज़े हैं सभी में इसी किस्म के ताले लगे हैं जिसमें बाहर-भीतर दोनों तरफ़ से चाभी लगती है, इस हिसाब से ताला लगाने का सुराख इस पार से उस पार तक ठहरा, अगर दरवाज़े के उस तरफ़ अँधेरा न हो तो उस सुराख में आँख लगाकर उधर की चीज़ बखूबी देखने में आ सकती है।

जब काली औरत मोमबत्ती गुल कर चुकी तो उसी ताली के सुराख से आती हुई एक बारीक रोशनी कोठरी के अन्दर मालूम पड़ी। उस ऐयारा ने सुराख में आँख लगाकर देखा। एक बहुत बड़ा आलीशान कमरा बड़े तकल्लुफ से सजा हुआ नज़र पड़ा, उस कमरे में बेशक़ीमती मसहरी पर एक अधेड़ आदमी के पास बैठी कुछ बात-चीत और हँसी दिल्लगी करती हुई माधवी भी दिखायी पड़ी। अब विश्वास हो गया कि इसी से मिलने के लिए माधवी रोज़ आया करती है। इस मर्द में किसी तरह की खूबसूरती न थी तिस पर भी माधवी न मालूम इसकी किस खूबी पर जी-जान से मर रही थी और यहाँ आने में अगर इन्द्रजीतसिंह विघ्न डालते थे तो क्यों इतना परेशान हो जाती थी।

उस काली औरत ने इन्द्रजीतसिंह को भी उधर का हाल देखने के लिए कहा। कुमार बहुत देर तक देखते रहे। उन दोनों में क्या बातचीत हो रही थी सो तो मालूम न हुआ मगर उनके हाव-भाव में मुहब्बत की निशानी पायी जाती थी। थोड़ी देर के बाद दोनों पलँग पर सो रहे। उसी समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने चाहा कि ताला खोलकर उस कमरे में पहुँचे और दोनों नालायकों को कुछ सज़ा दें मगर काली औरत ने ऐसा करने से उन्हें रोका और कहा, ‘‘खबरदार, ऐसा इरादा भी न करना नहीं तो हमारा बना-बनाया खेल बिगड़ जायगा और बड़े-बड़े हौंसलों के पहाड़ मिट्टी में मिल जायँगे, बस इस समय सिवाय वापस चलने के और कुछ मुनासिब नहीं है।’’

काली औरत ने जो कुछ कहा लाचार इन्द्रजीतसिंह को मानना और वहाँ से लौटना ही पड़ा। उसी तरह ताला खोलते और बन्द करते बराबर चले आये और उस कमरे के दरवाज़े पर पहुँचे जिसमें इन्द्रजीतसिंह सोया करते थे। कमरे के अन्दर न जाकर काली औरत इन्द्रजीतसिंह को मैदान में ले गयी और नहर के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर बैठने के बाद दोनों में यों बातचीत होने लगी—

इन्द्र : तुमने उस कमरे में जाने से व्यर्थ ही मुझे रोक दिया।

औरत : ऐसा करने से क्या फ़ायदा होता! यह कोई गरीब कंगाल का घर नहीं है बल्कि ऐसे की अमलदारी हैं, जिसके यहाँ हज़ारो बहादुर और एक-से-एक लड़ाके मौजूद हैं, क्या बिना गिरफ़्तार हुए तुम निकल जाते! कभी नहीं। तुम्हारा यह सोचना भी ठीक नहीं है कि जिस राह से मैं आती-जाती हूँ उसी राह से तुम भी इस सरज़मीन के बाहर हो जाओगे क्योंकि वह राह सिर्फ़ हमीं लोगों के आने-जाने लायक है, तुम उससे किसी तरह नहीं जा सकते, फिर जान-बूझकर अपने को आफ़त में फँसाना कौन बुद्धिमानी थी।

इन्द्र : क्या जिस राह से तुम आती-जाती हो उससे मैं नहीं जा सकता?

औरत : कभी नहीं इसका ख़याल भी न करना।

इन्द्र : सो क्यों?

औरत : इसका सबब भी जल्दी ही मालूम हो जायगा।

इन्द्र : ख़ैर तो अब क्या करना चाहिए?

औरत : अब तुम्हें सब्र करके 10-15 दिन और इसी जगह रहना मुनासिब है।

इन्द्र : अब मैं किस तरह उस बदकारा के साथ रह सकूँगा।

औरत : जिस तरह भी हो सके!

इन्द्र : ख़ैर फिर इसके बाद क्या होगा?

औरत : इसके बाद यह होगा कि तुम सहज ही में सिर्फ़ इस खोह के बाहर ही न जाओगे बल्कि एकदम से यहाँ का राज्य ही तुम्हारे कब्ज़े में आ जायगा।

इन्द्र : क्या वह कोई राजा था जिसके पास माधवी बैठी थी।!

औरत : नहीं, यह राज्य माधवी का है और वह उसका दीवान था।

इन्द्र : माधवी तो अपने राज्य को कुछ भी नहीं देखती!

औरत : अगर वह इस लायक होती तो दीवान की खुशामद क्यों करती!

इन्द्र : इस हिसाब से तो दीवान ही को राजा कहना चाहिए।

औरत : बेशक!

इन्द्र : ख़ैर, अब तुम क्या करोगी?

औरत : इसके बताने की अभी कोई ज़रूरत नहीं, दस-बारह दिन बाद मैं तुमसे मिलूँगी और जो कुछ इतने दिनों में कर सकूँगी उसका हाल कहूँगी, बस अब मैं जाती हूँ, दिल को जिस तरह हो सम्हालो और माधवी पर किसी तरह यह मत ज़ाहिर होने दो कि उसका भेद तुम पर खुल गया या तुम उससे कुछ रंज हो, इसके बाद देखना कि इतना बड़ा राज्य कैसे सहज ही में हाथ लगता है जिसका मिलना हज़ारों सिर कटने पर भी मुश्किल है।

इन्द्र : ख़ैर यह तमाशा भी ज़रूर ही देखने लायक़ होगा।

औरत : अगर बन पड़ा तो इस वादे के बीच में दो एक दफे आकर तुम्हारी सुध ले जाऊँगी।

इन्द्र : जहाँ तक हो सके ज़रूर आना।

इसके बाद वह काली औरत चली गयी और इन्द्रजीतसिंह अपने कमरे में आकर सो रहे।

पाठक समझते होंगे कि इस काली औरत या इन्द्रजीतसिंह ने जो कुछ किया या कहा, सुना किसी को मालूम नहीं हुआ, मगर नहीं वह भेद उसी वक्त खुल गया और काली औरत के काम में बाधा डालनेवाला भी कोई पैदा हो गया बल्कि उसने उसी वक्त से छिपे-छिपे अपनी कार्रवाई भी शुरू कर दी जिसका हाल माधवी तक को न मालूम हो सका।

 

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