चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री |
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
चौथा बयान
हम ऊपर लिख आये हैं कि माधवी के यहाँ तीन आदमी अर्थात दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति, और धर्मसिंह कोतवाल मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनन्द लेते थे।
इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत मज़े में कटता था क्योंकि एक तो वह दीवान के मर्तबे पर था, दूसरे माधवी ऐसी खूबसूरत औरत उसे मिली थी। कुबेरसिंह और धर्मसिंह उसके दिली दोस्त थे, मगर कभी-कभी जब उन दोनों को माधवी का आ ध्यान जाता तो चित्त की वृत्ति बदल जाती और जी में कहते कि, ‘‘अफसोस, माधवी मुझे न मिली’!
पहिले इन दोनों को यह ख़बर न थी कि माधवी कैसी है। बहुत कहने-सुनने से एक दिन दीवान साहब ने इन दोनों को माधवी को देखने का मौका दिया था। उसी दिन से इन दोनों ही के जी में माधवी की सूरत चुभ गयी और उसके बारे में बहुत कुछ सोचा करते थे।
आज हम आधी रात के समय दीवान अग्निदत्त को अपने सुनसान कमरे में अकेले चारपाई पर लेटे किसी सोच में डूबे हुए देखते हैं। न मालूम वह क्या सोच रहा है या किस फ़िक्र में पड़ा है, हाँ एक दफे उसके मुँह से यह आवाज़ ज़रूर निकली—‘‘कुछ समझ में नहीं आता! इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि उसने अपना दिल खुश करने का कोई सामान वहाँ पैदा कर लिया है। तो मैं बेफ़िक्र क्यों बैठा हूँ? ख़ैर पहिले अपने दोस्तों से सलाह कर लूँ।’’ यह कहने के साथ ही वह चारपाई से उठ बैठा और कमरे में धीरे-धीरे टहलने लगा, आख़िर उसने खूँटी से लटकती हुई अपनी तलवार उतार ली और मकान के नीचे उतर आया।
दरवाज़े पर बहुत से सिपाही पहरा दे रहे थे। दीवान साहब को कहीं जाने के लिए तैयार देख ये लोग भी साथ चलने को तैयार हुए, मगर दीवान साहब के मना करने से उन लोगों को लाचार हो उसी जगह अपने काम पर मुस्तैद रहना पड़ा।
अकेले दीवान साहब वहाँ से रवाना हुए और बहुत जल्द कुबेरसिंह सेनापति के मकान पर जा पहुँचे जो इनके यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक सुन्दर सजे हुए मकान में बड़े ठाठ के साथ रहता था।
दीवान साहब को विश्वास था कि इस समय सेनापति अपने ऐशमहल मे आनन्द से सोता होगा, वहाँ से बुलवाना पड़ेगा, मगर नहीं दरवाज़े पर पहुँचते ही पहरेवालों से पूछने पर मालूम हुआ कि सेनापति साहब अभी तक अपने कमरे में बैठे हैं, बल्कि कोतवाल साहब भी इस समय उन्हीं के पास हैं।
अग्निदत्त यह सोचता हुआ ऊपर चढ़ गया कि आधी रात के समय कोतवाल यहाँ क्यों आया है और ये दोनों इस समय क्या सलाह-विचार कर रहे हैं। कमरे में पहुँचते ही देखा कि सिर्फ़ वे ही दोनों एक गद्दी पर तकिए के सहारे लेटे हुए कुछ बाते कर रहे हैं जो यकायक दीवान साहब को अन्दर पैर रखते देख उठ खड़े हुए और सलाम करने के बाद सेनापति साहब ने ताज्जुब में आकर पूछा— ‘‘यह आधी रात के समय आप घर से क्यों निकले?’’
दीवान : ऐसा ही मौका आ पड़ा, लाचार सलाह करने के लिए आप दोनों से मिलने की ज़रूरत हुई।
कोतवाल : आइए बैठिए, कुशल तो है?
दीवान : हाँ कुशल ही कुशल है, मगर कई खुटकों ने जी बेचैन कर रखा है।
सेनापति : सो क्या? कुछ कहिए भी तो!
दीवान : हाँ कहता हूँ, इसीलिए तो आया हूँ, मगर पहिले (कोतवाल की तरफ़ देखकर) आप तो कहिए, इस समय यहाँ कैसे पहुँचे?
कोतवाल : मैं तो यहाँ बहुत देर से हूँ, सेनापति साहब की विचित्र कहानी ने ऐसा उलझा रक्खा था कि बस क्या कहूँ, हाँ आप अपना हाल कहिए, जी बेचैन हो रहा है।
दीवान : मेरा कोई नया हाल नहीं है, केवल माधवी के विषय में कुछ सोचने-विचारने आया हूँ ।
सेनापति : माधवी के विषय में किस नये सोच ने आपको आ घेरा? कुछ तकरार की नौबत तो नहीं आयी।
दीवान : तक़रार की नौबत आयी तो नहीं मगर आना चाहती है।
सेनापति : सो क्यों?
दीवान : उसके रंग-ढंग आजकल बेढब नज़र आते हैं, तभी तो देखिए इस समय मैं यहाँ हूँ, नहीं तो पहर रात के बाद क्या कोई मेरी सूरत देख सकता था?
कोतवाल : इधर तो कई दिन आप अपने मकान ही पर रहे हैं।
दीवान : हाँ, इन दिनों वह अपने महल में कम आती है, उसी गुप्त पहाड़ी में रहती है, कभी-कभी आधी रात के बाद आती है और मुझे उसकी राह देखनी पड़ती है।
कोतवाल : वहाँ उसका जी कैसे लगता है?
दीवान : यही तो ताज्जुब है, मैं सोचता हूँ कि कोई मर्द वहाँ ज़रूर है क्योंकि वह कभी अकेले रहनेवाली नहीं?
कोतवाल : पता लगाना चाहिए।
दीवान : पता लगाने के उद्योग में मैं कई दिन से लगा हूँ मगर कुछ हो न सका। जिस दरवाज़े को खोलकर वह आती-जाती है उसकी ताली भी इसलिए बनवायी कि धोखे मे वहाँ तक जा पहुँचूँ, मगर काम न चला, क्योंकि जाती समय अन्दर से वह न मालूम ताले में क्या कर जाती है कि चाभी नहीं लगती।
कोतवाल : तो दरवाज़ा तोड़ के वहाँ पहुँचना चाहिए।
दीवान : ऐसा करने से बड़ा फ़साद मचेगा।
कोतवाल : फसाद करके कोई क्या कर लेगा! राज्य तो हम तीनों की मुट्ठी में है?
इतने ही में बाहर किसी आदमी के पैर की चाप मालूम हुई। तीनों देर तक उसी तरफ़ देखते रहे मगर कोई न आया। कोतवाल यह कहता हुआ कि ‘कहीं कोई छिप के बाते सुनता न हो’ उठा और कमरे के बाहर जाकर इधर-उधर देखने लगा, मगर किसी का पता न चला, लाचार फिर कमरे में चला आया और बोला, ‘‘कोई नहीं है, खाली धोखा हुआ।’’
इस जगह विस्तार से यह लिखने की कोई ज़रूरत नहीं कि इन तीनों में क्या-क्या बातचीत होती रही या इन लोगों ने कौन सी सलाह पक्की की, हाँ इतना कहना ज़रूरी है कि बातों-ही-बातों में इन तीनों ने रात बिता दी और सवेरा होते ही अपने-अपने घर का रास्ता लिया।
दूसरे दिन पहर रात जाते-जाते कोतवाल साहब के घर में एक विचित्र बात हुई। वे अपने कमरे में बैठे कचहरी के कुछ ज़रूरी काग़ज़ों को देख रहे थे कि इतने ही में शोरगुल की आवाज़ उनके कानों में आयी। ग़ौर करने से मालूम हुआ कि बाहर दरवाज़े पर लड़ाई हो रही है। कोतवाल साहब के सामने जो मोमी शमादान जल रहा था उसी के पास एक घण्टी पड़ी हुई थी, उठाकर बजाते ही एक खिदमदगार दौड़ा-दौड़ा सामने आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कोतवाल साहब ने कहा, ‘‘दरियाफ़्त करो बाहर कैसा कोलाहल मचा हुआ है?’’
ख़िदमदगार दौड़ा बाहर गया और तुरत लौटकर बोला, ‘‘न मालूम कहाँ से दो आदमी आपुस में लड़ते हुए आये हैं, फरियाद करने के लिए बेधड़क भीतर धँसे आते थे। पहरेवालों ने रोका तो उन्हीं से झगड़ा करने लगे।
कोतवाल : उन दोनों की सूरत-शक्ल कैसी है?
ख़िदमदगारः दोनों भले आदमी मालूम पड़ते हैं, अभी मूँछें नहीं निकली हैं, बड़े ही खूबसूरत हैं, मगर खून से तर-बतर हो रहे हैं।
कोतवाल : अच्छा कहो उन दोनों को हमारे सामने हाज़िर करें।
हुक़्म पाते ही ख़िदमतगार फिर बाहर गया और थोड़ी ही देर में कई सिपाही उन दोनों को लिये हुए कोतवाल के सामने हाज़िर हुए। नौकर की बात बिल्कुल सच निकली। वे दोनों कम उम्र और बहुत ही खूबसूरत थे, बदन पर लिबास भी बेशकीमत था, कोई हरबा उनके पास न था मगर खून से उन दोनों का कपड़ा तर हो रहा था।
कोतवाल : तुम लोग आपस में क्यों लड़ते हौ और हमारे आदमियों से फसाद करने पर उतारू क्यों हुए?
एक : (सलाम करके) हम दोनों भले आदमी हैं, सरकारी सिपाहियों ने बदजुबानी की, लाचार गुस्सा तो चढ़ा ही हुआ था, बिगड़ गयी।
कोतवाल : अच्छा इसका फैसला पीछे होता रहेगा, पहिले तुम यह कहो कि आपस में क्यों खूनखराबी कर बैठे और तुम दोनों का मकान कहाँ है?
दूसरा : जी हम दोनों आपकी रैयत हैं और गयाजी में रहते हैं, दोनों सगे भाई हैं, एक औरत के पीछे लड़ाई हो रही है जिसका फ़ैसला आपसे चाहते हैं, बाक़ी हाल इतने आदमियों के सामने कहना हम लोग पसन्द नहीं करते।
कोतवाल साहब ने सिर्फ़ उन दोनों को वहाँ रहने दिया बाक़ी सभों को वहाँ से हटा दिया, निराला होने पर फिर उन दोनों से लड़ाई का सबब पूछा।
एक : हम दोनों भाई सरकार से कोई मौजा ठीक लेने के लिए यहाँ आ रहे थे। यहाँ से तीन कोस पर एक पहाड़ी है, कुछ दिन रहते ही हम दोनों वहाँ पहुँचे और थोड़ा सुस्ताने की नीयत से उतर पड़े, घोड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर बैठ बातचीत करने लगे...
दूसरा : (सिर हिलाकर) नहीं, कभी नहीं।
पहिला : सरकार इसे हुक़्म दीजिए कि चुप रहे, मैं कह लूँ तो जो कुछ इसके जी में आये कहे।
कोतवाल: (दूसरे को डाँटकर) बेशक ऐसा ही करना होगा!
दूसरा : बहुत अच्छा।
पहिलाः थोड़ी ही देर बैठे थे कि पास ही किसी औरत के रोने की बारीक आवाज़ आयी जिसके सुनने से कलेजा पानी हो गया।
दूसरा : ठीक, बहुत ठीक।
कोतवाल : (लाल आँखें करके) क्योंजी, तुम फिर बोलते हो?
दूसरा : अच्छा अब न बोलूँगा!
पहिला : हम दोनों उठकर उसके पास गये। आह, ऐसी खूबसूरत औरत तो आज तक किसी ने न देखी होगी, बल्कि मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कि दुनिया में ऐसी खूबसूरत कोई दूसरी न होगी। वह अपने सामने एक तस्वीर को जो चौखटे में जड़ी हुई थी, रक्खे बैठी थी और उसे देख फूट-फूटकर रो रही थी।
कोतवाल : वह तस्वीर किसकी थी, तुम पहिचानते हो?
पहिला : जी हाँ पहिचानता हूँ, मेरी तस्वीर थी।
दूसरा : झूठ झूठ, कभी नहीं, बेशक वह तस्वीर आपकी थी! मैं इस समय बैठा उस तस्वीर से आपकी सूरत मिलान कर गया, बिल्कुल आपसे मिलती है इसमें कोई शक नहीं! आप इसके हाथ में गंगाजल देकर पूछिए किसकी तस्वीर थी?
कोतवाल : (ताज्जुब में आकर) क्या मेरी तस्वीर थी?
दूसरा : बेशक आपकी तस्वीर थी, आप इससे क़सम देकर पूछिए तो सही।
कोतवाल : (पहिले से) क्यों जी, तुम्हारा भाई क्या कहता है?
पहिला : जी ई ई...
कोतवाल : (ज़ोर से) कहो साफ़-साफ़, सोचते क्या हो?
पहिलाः जी बात तो यही ठीक है, आप ही की तस्वीर थी।
कोतवाल : फिर झूठ क्यों बोलते हो?
पहिलाः बस यही एक बात झूठ मुँह से निकल गयी, अब कोई बात झूठ न कहूँगा, माफ कीजिए।
कोतवाल बेचारा ताज्जुब में आकर सोचने लगा कि उस औरत को मुझसे क्योंकर मुहब्बत हो गयी जिसकी खूबसूरती की ये लोग इतनी तारीफ़ कर रहे हैं? थोड़ी देर बाद फिर पूछा—
कोतवाल: हाँ तो आगे क्या हुआ?
पहिला : (आपने भाई की तरफ़ इशारा करके) बस यह उस पर आशिक हो गया और उसे तंग करने लगा।
दूसरा : यह भी उस पर आशिक होकर उसे छेड़ने लगा।
पहिला : जी नहीं, उसने मुझे कबूल कर लिया और मुझसे शादी करने पर राजी हो गयी बल्कि उसने यह भी कहा कि मैं दो दिन तक यहाँ रहकर तुम्हारा आसरा देखूँगी, अगर तुम पालकी लेकर आओगे तो तुम्हारे साथ चली चलूँगी।
दूसरा : जी नहीं, यह बड़ा भारी झूठा है, जब यह उसकी खुशामद करने लगा तब उसने कहा कि मैं उसी के लिए-जान देने को लिए तैयार हूँ जिसकी तस्वीर मेरे सामने है। जब इसने, उसकी बात न सुनी तो उसने अपनी तलवार से इसे जख्मी किया और मुझसे बोली कि तुम जाकर मेरे दोस्त को जहाँ हो ढूँढ़ निकालो और कह दो कि मैं तुम्हारे लिए बरबाद हो गयी अब भी तो सुध लो, जब मैंने इसे मना किया तो यह मुझसे झगड़ पड़ा। असल में यही लड़ाई का सबब हुआ।
पहिला : जी नहीं, यह सन्देशा उसने मुझे दिया क्योंकि यही उसे दुःख दे रहा था।
दूसरा : नहीं, यह झूठ बोलता है।
पहिला : नहीं, यह झूठा है, मैं ठीक-ठीक कहता हूँ।
कोतवाल : अच्छा मुझे उस औरत के पास ले चलो, मैं खुद उससे पूछ लूँगा कि कौन झूठा है और कौन सच्चा है।
पहिला : क्या अभी तक वह उसी जगह होगी?
दूसरा : ज़रूर वहाँ होगी, यह बहाना करता है क्योंकि वहाँ जाने से यह झूठा साबित हो जायेगा।
पहिला : (अपने भाई की तरफ़ देखकर) झूठा तू साबित होगा। अफ़सोस तो इतना ही है कि अब मुझे वहाँ का रास्ता भी याद नहीं।
दूसरा : (पहिले की तरफ़ देखकर) आप रास्ता भूल गये तो क्या हुआ मुझे तो याद है, मैं ज़रूर आपको वहाँ ले चलकर झूठा साबित करूँगा! (कोतवाल साहब की तरफ़ देखकर) चलिए मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ।
कोतवाल : चलो!
कोतवाल साहब तो खुद बेचैन हो रहे थे और चाहते थे कि जहाँ तक हो वहाँ जल्द पहुँचकर देखना चाहिए कि वह औरत कैसी है जो मुझ पर आशिक हो तस्वीर सामने रख याद किया करती है। एक पिस्तौल भरी-भराई कमर में रख उन दोनों भाइयों को साथ ले मकान के नीचे उतरे। उनको बाहर जाने के लिए मुस्तैद देख कई सिपाही साथ चलने को तैयार हुए। उन्होंने अपनी सवारी का घोड़ा मँगवाया और उस पर सवार हो सिर्फ़ दो सिपाही साथ ले उन दोनों भाइयों के पीछे-पीछे रवाना हुए। दो घण्टे बराबर चले जाने के बाद एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुँच वे दोनों भाई रुके और कोतवाल साहब को घोड़े से उतरने के लिए कहा।
कोतवाल : क्या घोड़ा आगे नहीं जा सकता?
पहिला : घोड़ा आगे जा सकता है मगर मैं दूसरी ही बात सोचकर आपको उतरने के लिए कहता हूँ।
कोतवाल : वह क्या?
पहिला : जिस औरत के पास आप आये हैं वह इसी जगह है, दो ही कदम आगे बढ़ने से आप उसे बखूबी देख सकते हैं, मगर मैं चाहता हूँ कि सिवाय आपके ये दोनों प्यादे उसे देखने न पायें। इसके लिए मैं किसी तरह ज़ोर नहीं दे सकता मगर इतना ज़रूर कहूँगा कि आप आगे बढ़ झाँककर उसे देख लें फिर अगर जी चाहे तो इन दोनों को भी साथ ले जाँय, क्योंकि वह अपने को गया की रानी बताती हैं।
कोतवाल : (ताज्जुब से) अपने को गया की रानी बताती है?
दूसरा : जी हाँ।
अब तो कोतवाल साहब के दिल में कोई दूसरा ही शक पैदा हुआ। वह तरह-तरह की बातें सोचने लगे। ‘‘गया की रानी तो माधवी है, यह दूसरी कहाँ से पैदा हुई? क्या वह माधवी तो नहीं? नहीं-नहीं, वह भला यहाँ क्यों आने लगी! उससे, मुझसे क्या सम्बन्ध? वह तो दीवान साहब की हो रही है। मगर वह आयी भी हो तो कोई ताज्जुब नहीं, क्योंकि एक दिन हम तीनों दोस्त एक साथ महल में बैठे थे और रानी माधवी वहाँ पहुँच गयी थी, मुझे खूब याद है कि उस दिन उसने मेरी तरफ़ बेढब तरह से देखा था और दीवान साहब की आँखें बचा घड़ी-घड़ी देखती थी, शायद उसी दिन से मुझ पर आशिक हो गयी हो! हाय वह अनोखी चितवन कभी न भूलेगी। अहा, अगर यहाँ वही हो, और मुझे विश्वास हो कि मुझसे प्रेम रखती है तो क्या बात है? मैं ही राजा हो जाऊँ और दीवान साहब को तो बात-की-बात में खपा डालूँगा! मगर ऐसी किस्मत कहाँ? ख़ैर जो हो इनकी बात मान ज़रा झाँककर देखना ज़रूर चाहिए, शायद ईश्वर ने दिन फेरा ही हो!’’ ऐसी-ऐसी बहुत सी बातें सोचते-विचारते कोतवाल साहब घोड़े से उतर पड़े और उन दोनों भाइयों के कहे मुताबिक आगे बढ़े।
यहाँ से पहाड़ियों का सिलसिला बहुत दूर तक चला गया था। जिस जगह कोतवाल साहब खड़े थे वहाँ दो पहाड़ियाँ इस तरह आपस में मिली हुई थीं कि बीच में कोसों तक लम्बी दरार मालूम पड़ती थी जिसके बीच में बहता हुआ पानी का चश्मा और दोनों तरफ़ छोटे-छोटे दरख्त बहुत भले मालूम पड़ते थे। इधर-उधर बहुत-सी कन्दराओं पर निगाह पड़ने से यही विश्वास होता था कि ऋषियों और तपस्वियों के प्रेमी अगर यहाँ आवें तो अवश्य उनके दर्शन से अपना जन्म कृतार्थ कर सकेंगे।
दरार के कोने पर पहुँचकर दोनों भाइयों ने कोतवाल साहब को बायीं तरफ़ झाँकने के लिए कहा। कोतवाल साहब ने झाँककर देखा, साथ ही एकदम चौंक पड़े और मारे खुशी के भरे हुए गले से चिल्लाकर बोले, ‘‘अहा हा, मेरी किस्मत जागी! बेशक यह रानी माधवी ही तो है!
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