चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 |
चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
चौथा बयान
ख़िदमतगार ने किले में पहुँचकर और यह सुनकर कि इस समय दोनों एक ही जगह बैठे हैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुँअर आनन्दसिंह की जुबानी सुना था महाराज सुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह के पास हाज़िर होकर अर्ज़ किया। इस ख़बर को सुनते ही उन दोनों के कलेजे में चोट-सी लगी। थोड़ी देर तक घबराहट के सबब में कुछ न सोच सके कि क्या करना चाहिए। रात भी एक पहर से ज़्यादे जा चुकी थी। आख़िर जीतसिंह, तेज़सिंह और देवीसिंह को बुलाकर ख़िदमतगार की जुबानी जो कुछ सुना था, कहा और पूछा कि अब क्या करना चाहिए?
तेज़सिंह : उस जंगल में इतनी औरतों का इकट्ठे होकर गाना-बजाना और इस तरह धोखा देना बेसबब नहीं है।
सुरेन्द्र : जब से शिवदत्त तके उभरने की ख़बर सुनी है एक खटका-सा बना रहता है, मैं समझता हूँ यह भी उसी की शैतानी है।
बीरेन्द्र : दोनों लड़के ऐसे कमजोर तो नहीं हैं कि जिसका भी जी चीहे पकड़ ले।
सुरेन्द्र : ठीक है मगर आनन्द का भी वहाँ रह जाना बुरा ही हुआ।
तेज़ : बेचारा ख़िदमतगार ज़बर्दस्ती साथ हो गया था, नहीं तो पता भी न लगता कि दोनों कहाँ चले गये। ख़ैर उनके बारे में जो कुछ सोचना है सोचिए मगर मुझे जल्द इजाज़त दीजिए कि हज़ार सिपाहियों को साथ लेकर वहाँ जाऊँ और इसी वक्त उस छोटे से जंगल को चारो तरफ़ से घेर लूँ, फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा।
सुरेन्द्र : (जीतसिंह से) क्या राय है?
जीत : तेज़ ठीक कहता है, इसे अभी जाना चाहिए।
हुक़्म पाते ही तेज़सिंह दीवानख़ाने के ऊपर बुर्ज़ पर चढ़ गए जहाँ बड़ा-सा नक़्क़ारा और उसके पास ही एक भारी चोब इसलिए रक्खा हुआ था कि वक्त-बेवक्त जब भी कोई ज़रूरत आ पड़े और फौज को तुरन्त तैयार करना हो तो इस नक्कारे पर चोब मारी जाए। इसकी आवाज़ भी निराले ढंग की थी जो किसी नक्कारे की आवाज़ से मिलती न थी और इसके बजाने के लिए तेज़सिंह ने कई इशारे भी मुक़र्रर किए हुए थे।
तेज़सिंह ने चोब उठाकर ज़ोर से एक दफे नक़्क़ारे पर मारा जिसकी आवाज़ तमाम शहर में बल्कि दूर-दूर गूँज गयी। चाहे इसका सबब किसी शहर वाले की समझ में न आया हो मगर सेनापति समझ गया कि इसी वक्त हज़ार फौजी सिपाहियों की ज़रूरत है, जिसका इन्तजाम उसने बहुत जल्द किया।
तेज़सिंह अपने सामान से तैयार हो किले के बाहर निकले और हज़ार सिपाही तथा बहुत से मशालचियों को साथ ले उस छोटे से जंगल की तरफ़ रवाना होकर बहुत जल्दी ही वहाँ जा पहुँचे।
थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहरा मुक़र्रर करके चारो तरफ़ से उस जंगल को घेर लिया। इन्द्रजीतसिंह तो ग़ायब हो ही चुके थे, आनन्दसिंह के मिलने की बहुत तरकीब की गयी मगर उनका भी पता न लगा। तरद्दुद में रात बितायी, सवेरा होते ही तेज़सिंह ने हुक़्म दिया कि एक तरफ़ से इस जंगल को तेज़ी के साथ काटना शुरू करो जिसमें दिन भर में तमाम जंगल साफ़ हो जाय।
उसी समय महाराज सुरेन्द्रसिंह ‘और जीतसिंह भी वहाँ आ पहुँचे। जंगल का काटना इन्होंने भी पसंद किया और बोले कि बहुत अच्छा होगा अगर हम लोग इस जंगल से एकदम ही निश्चिन्त हो जायें’।
इस छोटे जंगल को काटते देर ही कितनी लगनी थी, तिस पर महाराज की मुस्तैदी के सबब यहाँ कोई भी ऐसा नज़र नहीं आता था, जो पेड़ों की कटाई में न लगा हो। दोपहर होते-होते जंगल कट के साफ़ हो गया मगर किसी का कुछ पता न लगा यहाँ तक कि इन्द्रजीतसिंह की तरह आनन्दसिंह के भी गायब हो जाने का निश्चय करना पड़ा। हाँ, इस जंगल के अंत में एक कमसिन नौजवान हसीन और बेशक़ीमती गहने-कपड़े से सजी हुई औरत की लाश पायी गयी जिसके सिर का पता न था।
वह लाश महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास लायी गयी। अब सभों की परेशानी और बढ़ गयी और तरह-तरह के ख्याल पैदा होने लगे। लाचार उस लाश को साथ ले शहर की तरफ़ लौटे। जीतसिंह ने कहा, ‘‘हम लोग जाते हैं, तारासिंह को भेज सब ऐयारों को जो शिवदत्त की फ़िक्र में गए हुए हैं बुलवाकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तलाश में भेजेंगे, मगर तुम इसी वक्त उनकी खोज में जहाँ तुम्हारा दिल गवाही दे जाओ।’’
तेज़सिंह अपने सामान से तैयार ही थे, उसी वक्त सलाम कर एक तरफ़ को रवाना हो गये, और महाराज रुमाल से आँखों को पोंछते हुए चुनार की तरफ़ बिदा हुए।
उदास और पोतों की जुदाई से दुःखी महाराज सुरेन्द्रसिंह घर पहुँचे। दोनों लड़कों के गायब होने का हाल चन्द्रकान्ता ने भी सुना। वह बेचारी दुनिया के दुःख-सुख को अच्छी तरह समझ चुकी थी इसलिए कलेजा मसोस कर रह गयी, ज़ाहिर में रोना-चिल्लाना उसने पसन्द न किया, मगर ऐसा करने से उसके नाजुक दिल पर और भी सदमा पहुँचा, घड़ी-भर में ही उसकी सूरत बदल गयी। चपला और चंपा को चन्द्रकान्ता से कितनी मुहब्बत थी इसको आप लोग खूब जानते हैं लिखने की कोई ज़रूरत नहीं, दोनों लड़कों के गायब होने का गम इन दोंनो को चन्द्रकान्ता से ज़्यादे हुआ और दोनों ने निश्चय कर लिया कि मौका पाकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का पता लगाने की कोशिश करेंगी।
महाराज सुरेन्द्रसिंह के आने की ख़बर पाकर बीरेन्द्रसिंह मिलने के लिए उनके पास गए। देवीसिंह भी वहाँ मौजूद थे। बीरेन्द्रसिंह के सामने ही महाराज ने सब हाल देवीसिंह से कह कर पूछा कि ‘अब क्या करना चाहिये’?
देवी : मैं पहिले उस लाश को देखना चाहता हूँ जो उस जंगल में पायी गयी थी।
सुरेन्द्र : हाँ तुम उसे ज़रूर देखो।
जीत : (चोबदार से) उस लाश को जो जंगल में पायी गयी थी इसी जगह लाने के लिए कहो।
‘‘बहुत अच्छा।’’ कहकर चोबदार बाहर चला गया मगर थोड़ी ही देर में वापिस आकर बोला, ‘‘महाराज के साथ आते-आते न मालूम वह लाश कहाँ गुम हो गयी। कई आदमी उसकी खोज में परेशान हैं मगर पता नहीं लगता!’’
बीरेन्द्र : अब फिर हम लोगों को होशियारी से रहने का जमाना आ गया। जब हजारो आदमियों के बीच से लाश गुम हो गयी तो मालूम होता है अभी बहुत कुछ उपद्रव होने वाला है।
जीत : मैंने तो समझा था कि अब जो कुछ थोड़ी-सी उम्र रह गयी है आराम से कटेगी। मगर नहीं, ऐसी उम्मीद किसी को कुछ भी नहीं रखनी चाहिए।
सुरेन्द्र : ख़ैर जो होगा देखा जायेगा, इस समय क्या करना मुनासिब है, इसे सोचो।
जीत : मेरा विचार था कि तारासिंह को बद्रीनाथ वग़ैरह के पास भेजते जिसमें वे लोग भैरोसिंह को छुड़ाकर और किसी कार्यवाई में न फँसे और सीधे यहाँ चले आवें, मगर ऐसा करने को भी जी नहीं चाहता। आज-भर आप और सब्र करें, अच्छी तरह सोचकर कल मैं अपनी राय दूँगा।
To give your reviews on this book, Please Login