चन्द्रकान्ता सन्तति - 1देवकीनन्दन खत्री |
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
सातवाँ बयान
अपने भाई इन्द्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनन्दसिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर-उधर निगाह दौड़ाने लगे। पश्चिम तरफ़ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ीं। ये तेज़ी के साथ उस तरफ़ बढ़े और उन दोनों के पास पहुँचने की उम्मीद से दो कोस तक पीछा किये चले गये मगर उम्मीद पूरी नहीं हुई क्योंकि पहाड़ी के नीचे पहुँचकर वे दोनों रुकीं और अपने पीछे आते हुए आनन्दसिंह की तरफ़ देख घोड़ों को एकदम तेज़ कर पहाड़ी के बगल से घूमाती हुई गायब हो गयीं।
खूब खिली हुई चाँदनी रात होने के सबब से आनन्दसिंह को ये दोनों औरते दिखाई पड़ीं और उन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाड़ी के पास पहुँचते ही उन दोनों के भाग जाने से इनको बड़ा ही रंज हुआ। खड़े होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इनको हैरान और सोचते हुए छोड़कर निर्दयी चन्द्रमा में भी धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को जाते देख मौका पाकर अँधेरे ने चारो तरफ़ हुकूमत जमायी। आनन्दसिंह और भी दुखी हुए। क्या करें? कहाँ जायें? किससे पूछें कि इन्द्रजीतसिंह को कौन ले गया?
दूर से एक रोशनी दिखायी पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी झोपड़ी के आगे आग जल रही है। आनन्दसिंह उसी तरफ़ चले और थोड़ी ही देर में कुटी के पास पहुँचकर देखा कि पत्तों की बनायी हुई हरी झोपड़ी के आगे आठ-दस आदमी जमीन पर फर्श बिछाए लेटे हैं जो दाढ़ी और पहिरावे से साफ़ मुसलमान मालूम पड़ते हैं। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे हैं। एक आदमी फारसी के शेर पढ़कर सुना रहा है, और बाक़ी सब ‘वाह वाह’ की धुन लड़ा रहे हैं। एक तरफ़ आग जल रही है और दो तीन आदमी कुछ खाने की चीज़ें पका रहे हैं। आनन्दसिंह फर्श के पास जाकर खड़े हो गए।
आनन्दसिंह को देखते ही सब-के-सब उठ खड़े हुए और बड़ी इज्जत से उनको फ़र्श पर बैठाया। उस आदमी ने जो फारसी के शेर पढ़-पढ़कर सुना रहा था, खड़े हो अपनी रँगीली भाषा में कहा, ‘‘खुदा का शुक्र है कि शाहजादे चुनार ने इस मजलिस में पहुँचकर हम लोगों की इज्जत को फल्के हफ्तुम* तक पहुँचाया। इस जंगल बियाबान में हम लोग क्या ख़ातिर कर सकते हैं सिवाय इसके कि इनके कदमों को अपनी आँखों पर जगह दें और इत्र व इलायची की पेशकश करें!!’’ (* मुसलमानों की किताबों में सात दर्जे आसमान के लिखे हैं, सबसे ऊपर वाले दर्जे़ का नाम फल्के हफ़्तुम है।)
केवल इतना ही कहकर इत्रदान और इलायची की डिब्बी उनके आगे ले गया। पढ़े-लिखे भले आदमियों की ख़ातिर ज़रूरी समझकर आनन्दसिंह ने इत्र सूँघा और इलायची ले लिया, इसके बाद इनसे इजाज़त लेकर वह फिर फारसी कविता पढ़ने लगा। दूसरे आदमियों ने दो एक तकिए इनके अगल-बगल में रख दिए।
इत्र की विचित्र खुशबू ने इनको मस्त कर दिया, इनकी पलकें भारी हो गयीं और बेहोशी ने धीरे-धीरे अपना असर जमाकर इनको फ़र्श पर सुला दिया। दूसरे दिन दोपहर को आँख खुलने पर इन्होंने अपने को एक-दूसरे ही मकान में मसहरी पर पड़े हुए पाया। घबड़ाकर उठ बैठे और इधर-उधर देखने लगे।
पाँच कमसिन और खूबसूरत औरतें सामने खड़ी हुई दिखायी दीं जिनमें से एक सरदारी की तरह पर कुछ आगे बढ़ी हुई थी। उसके हुस्न और अदा को देख आनन्दसिंह दंग हो गये। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों और बाक़ी चितवन ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया, उसकी ज़रा-सी हँसी ने इनके दिल पर बिजली गिरायी, और आगे बढ़ हाथ जोड़, इस कहने ने तो और भी सितम ढाया कि—‘क्या आप मुझसे खफा हैं’?
आनन्दसिंह भाई की जुदाई, रात की बात, ऐयारों के धोखे में पड़ना, सबकुछ बिलकुल भूल गये और उसकी मुहब्बत में चूर हो बोले—‘‘तुम्हारी सी परीजमाल से और रंज!!’’
वह औरत पलंग पर बैठ गयी और आनन्दसिंह के गले में हाथ डाल के बोली, ‘‘खुदा की कसम खाकर कहती हूँ कि साल-भर से आपके इश्क ने मुझे बेकार कर दिया? सिवाय आपके ध्यान के खाने-पीने को बिलकुल सुध न रही, मगर मौका न मिलने से लाचार थी।’’
आनन्द : (चौंककर) हैं! क्या तुम मुसलमान हो जो खुदा की क़सम खाती हो?
औरत : (हँसकर) हाँ, क्या मुसलमान बुरे होते हैं?
आनन्दसिंह यह कहकर उठ खड़े हुए—‘‘अफ़सोस अगर तुम मुसलमान न होती तो मैं तुम्हें जी जान से प्यार करता, मगर एक औरत के लिए अपना मज़हब नहीं बिगाड़ सकता।
औरत : (हाथ थामकर) देखो बेमुरौवती मत करो! मैं सच कहती हूँ कि अब तुम्हारी जुदायी मुझसे न सही जायगी!!
आनन्द : मैं भी सच कहता हूँ कि मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखना।
औरत : (भौं सिकोड़कर) क्या यह बात दिल से कहते हो?
आनन्द : हाँ, बल्कि क़सम खाकर।
औरत : पछताओगे और मुझ-सी चाहनेवाली कभी न पाओगे।
आनन्द : (अपना हाथ छुड़ाकर) लानत है ऐसी चाहत पर।
औरत : तो तुम यहाँ से चले जाओगे?
आनन्द : ज़रूर!
औरत : मुमकिन नहीं।
आनन्द : क्या मजाल की तुम मुझको रोको!
औरत : ऐसा ख्याल भी न करना।
‘‘देखें मुझे कौन रोकता है!’’ कहकर आनन्दसिंह उस कमरे के बाहर हुए और उसी कमरे की एक खिड़की जो दीवार से लगी हुई थी खोल वे औरतें वहाँ से निकल गयीं।
आनन्दसिंह इस उम्मीद में चारों तरफ़ घूमने लगे कि कहीं रास्ता मिले तो बाहर हो जायँ मगर उनकी उम्मीद किसी तरह पूरी न हुई।
यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा न था। सिवाय इस कमरे और सहन के और कोई जगह इसमें न थी। चारो तरफ़ ऊँची-ऊँची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कोई दरवाजा न था। हर तरह से लाचार और दुःखी हो फिर उसी पलंग पर आ लेटे और सोचने लगे—
‘‘अब क्या करना चाहिए! इस कम्बख्त से किस तरह जान बचे? यह तो हो ही नहीं सकता कि मैं इसे चाहूँ या प्यार करूँ। राम,राम, मुसलमानिन से और इश्क! यह तो सपने में भी नहीं होने का। तब फिर क्या करूँ? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखूँगा तो इसी खंजर से जो मेरी कमर में है अपनी जान दे दूँगा।
कमर से खंजर निकालना चाहा, देखा तो कमर खाली है। फिर सोचने लगे—‘‘गजब हो गया, इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रक्खा। अगर कोई दुश्मन आ जाए तो मैं क्या कर सकूँगा? बेहया अगर मेरे पास आवे तो गला दबाकर मार डालूँ। नहीं, नहीं वीर पुत्र होकर स्त्री पर हाथ उठाना! यह मुझसे न होगा, तब क्या भूखे-प्यासे जान दे देना पड़ेगा? मुसलमानिन के घर में अन्न-जल कैसे ग्रहण करूँगा! हाँ ठीक है, एक सूरत निकल सकती है। (दीवार की तरफ़ देखकर) इसी खिड़की से वे लोग बाहर निकल गयी हैं। अबकी अगर यह खिड़की खुले और वह कमरे में आवे तो मैं जबर्दस्ती इसी राह से बाहर हो जाऊँगा।’’
भूखे प्यासे दिन बीत गया, अँधेरा हुआ चाहता था कि वही छोटी-सी खिड़की खुली और चारों औरतों को साथ लिए वह पिशाची आ मौजूद हुई। एक औरत हाथ में रोशनी, दूसरी पानी, तीसरी तरह-तरह की मिठाइयों से भरा चाँदी का थाल उठाए हुए और चौथी पान का जड़ाऊ डब्बा लिए साथ मौजूद थी।
आनन्दसिंह पलंग से उठ खड़े हुए और वह बाहर निकल जाने की उम्मीद में उस खिड़की के अन्दर घुसे। उन औरतों ने इन्हें बिलकुल न रोका क्योंकि वे जानती थीं कि सिर्फ़ इस खिड़की ही के पार चले जाने से उनका काम न चलेगा।
खिड़की के पार तो हो गए मगर आगे अँधेरा था। इस छोटी-सी कोठरी में चारों तरफ़ घूमे मगर रास्ता न मिला, हाँ एक तरफ़ बन्द दरवाजा मालूम हुआ जो किसी तरह खुल न सकता था, लाचार फिर उसी कमरे में लौट आये।
उस औरत ने हँसकर कहा, ‘‘मैं पहिले ही कह चुकी हूँ आप मुझसे अलग नहीं हो सकते। खुदा ने मेरे ही लिए आपको पैदा किया है। अफसोस कि आप मेरी तरफ़ खयाल ही नहीं करते और मुफ्त में अपनी जान गँवाते हैं! बैठिए, खाइए, पीजिए, आनन्द कीजिए, किस सोच में पड़े हैं!!’’
आनन्द : मैं तेरा छुआ खाऊँ?
औरत : क्यों हर्ज़ क्या है? खुदा सबका है, उसी ने हमको भी पैदा किया। आपको भी पैदा किया। जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो आपुस में अछूत कैसी!
आनन्द : (चिढ़कर) खुदा ने हाथी भी पैदा किया, गदहा भी पैदा किया, कुत्ता भी पैदा किया, सुअर भी पैदा किया, मुर्गा भी पैदा किया—जब एक ही बाप के सब लड़के तो परहेज काहे का!
औरत : ख़ैर खुशी आपकी, न मानियेगा पछताइयेगा। अफ़सोस कीजियेगा और आख़िर झख मारकर फिर वही कीजियेगा जो मैं कहती हूँ। भूखे-प्यासे जान देना मुश्किल बात है—लो मैं जाती हूँ।
खाने पीने का सामान और रोशनी वहीं छोड़ चारों लौंडिएँ उस खिड़की के अन्दर घुस गयीं। आनन्दसिंह ने चाहा कि जब यह शैतान खिड़की के अन्दर जाए तो मैं भी जबर्दस्ती साथ हो लूँ या तो पार ही हो जाऊँगा या इसे भी न जाने दूँगा, मगर उनका यह ढंग भी न लगा।
वह मदमातो औरत खिड़की में अन्दर की तरफ़ पैर लटकाकर बैठ गयी और इनसे बात करने लगी।
औरत : अच्छा आप मुझसे शादी न करें, इसी तरह मुहब्बत रक्खें।
आनन्द : कभी नहीं, चाहे जो हो!
औरत : (हाथ का इशारा करके) अच्छा उस औरत से शादी करेंगे जो आपके पीछे खड़ी है? वह तो हिन्दुआनी है!
‘‘मेरे पीछे दूसरी औरत कहाँ से आयी!’’ ताज्जुब से पीछे फिर आनन्दसिंह ने देखा। उस नालायक को मौका मिला, खिड़की के अन्दर हो झट से किवाड़ बन्द कर दिया।
आनन्दसिंह पूरा धोखा खा गए, हर तरह से हिम्मत टूट गयी—लाचार फिर उसी पलंग पर लेट गए। भूख से आँखें निकल आती थी खाने-पीने का सामान मौजूद था मगर वह जहर से भी कई दर्जे बढ़ के था, दिल में समझ लिया कि अब जान गयी। कभी उठते, कभी बैठते, कभी दालान के बाहर निकल कर टहलते, आधी रात जाते-जाते भूख की कमज़ोरी ने उन्हें चलने-फिरने लायक न रक्खा, फिर पलँग पर आकर लेट गए और ईश्वर को याद करने लगे।
यकायक बाहर धमाके की आवाज़ आयी, जैसे कोई कमरे की छत पर से कूदा हो। आनन्दसिंह उठ बैठे और दरवाजे की तरफ़ देखने लगे।
सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जिसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। सिपाहियाना पोशाक पहिरे, ललाट में त्रिपुण्ड लगाए, कमर में नीमचा, खंजर और ऊपर से कमन्द लपेटे, बगल में मुसाफ़िरी का झोला, हाथ में दूध से भरा लोटा लिए आनन्दसिंह के सामने आ खड़ा हुआ और बोला-अफ़सोस आप राजकुमार होकर वह काम करना चाहते हैं जो ऐयारों जासूसों, या आदने सिपाहियों के करने लायक हो! नतीजा यह निकला कि इस चाण्डालिन के यहाँ फँसना पड़ा। इस मकान में आये आपको कै दिन हुए! घबराइए मत, मैं आपका दोस्त हूँ दुश्मन नहीं!
इस सिपाही को देख आनन्दसिंह ताज्जुब में आ गए और सोचने लगे कि यह कौन है जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुँचा! ख़ैर जो भी हो बेशक यह हमारा ख़ैरख्वाह है बदख्वाह नहीं।
आनन्द : जहाँ तक खयाल करता हूँ यहाँ आये दूसरा दिन है।
सिपाही : कुछ अन्न जल तो न किया होगा!
आनन्द : कुछ नहीं।
सिपाही : हाय राजा बीरेन्द्रसिंह के प्यारे लड़के की यह दशा!! लीजिए मैं आपको खाने-पीने के लिए देता हूँ।
आनन्द : पहिले मुझे मालूम होना चाहिए कि आपकी जाति उत्तम है और मुझे धोखा देकर अधर्मी करने की नीयत नहीं है।
सिपाही : (दाँत के नीचे जुबान दबाकर) राम-राम, ऐसा स्वप्न में भी ख़याल न कीजिएगा कि मैं धोखा देकर आपको अजाति करूँगा। मैंने पहिले ही सोचा था कि आप शक करेंगे इसलिए ऐसी चीज़ें लाया हूँ जिनके खाने पीने में आप उज्र न करें। पलंग पर से उठिए बाहर आइए।
आनन्दसिंह उसके साथ बाहर गये। सिपाही ने लोटा ज़मीन पर रख दिया और झोले में से कुछ मेवा निकाल कर उनके हाथों में देकर बोला, ‘‘लीजिए इसे खाइए और (लोटे की तरफ़ इशारा करके) यह दूध है, पीजिए।’’
आनन्दसिंह की जान में जान आ गयी, प्यास और भूख से दम निकला जाता था, ऐसे समय में थोड़े मेवे और दूध का मिल जाना क्या थोड़ी खुशी की बात है? मेवा खाया, दूध पिया, जी ठिकाने हुआ, इसके बाद उस सिपाही को धन्यवाद देकर बोले, ‘‘अब मुझे किसी तरह इस मकान के बाहर कीजिए।’’ सिपाही : मैं आपको इस मकान से बाहर ले चलूँगा मगर इसकी मजदूरी भी तो मुझे मिलनी चाहिए।
आनन्द : जो कहिए दूँगा।
सिपाही : आपके पास क्या है जो मुझे देंगे?
आनन्द : इस वक्त तो हजारों रुपये का माल मेरे बदन पर है।
सिपाही : मैं यह सब कुछ नहीं चाहता।
आनन्द : फिर।
सिपाही : उसी कम्बख्त के बदन पर जो कुछ जेवर हैं मुझे दीजिए और एक हज़ार अशर्फी।
आनन्द : यह कैसे हो सकेगा? वह तो यहाँ मौजूद नहीं है और हज़ार अशर्फी भी कहाँ से आवें?
सिपाही : उसी से लेकर दीजिए।
आनन्द : क्या वह मेरे कहने से देगी?
सिपाही : (हँसकर) वह तो आपके लिए जान देने को तैयार है, इतनी रकम की क्या बिसात है।
आनन्द : तो क्या आज मुझे यहाँ से न छुड़ावेंगे!
सिपाही : नहीं, मगर आप कोई चिन्ता न करें, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, कल जब वह राँड़ आवे तो उससे कहिए कि तुमसे मुहब्बत तब करूँगा जब अपने बदन का कुल जेवर और एक हज़ार अशर्फी यहाँ रख दो उसके दूसरे दिन आओ तो जो कहोगी मैं मानूँगा। वह तुरन्त अशर्फी देगी और कुल जेवर भी उतार देगी। नालायक बड़ी मालदार है, उसे कम न समझिए।
आनन्द : ख़ैर जो कहोगे करूँगा।
सिपाही : जब तक आप यह न करेंगे मैं आपको इस क़ैद से न छुड़ाऊँगा। आप यह न सोचिए कि उसे धोखा देकर या ज़बर्दस्ती उस राह से चले जाएँगे जिधर से वह आती-जाती है। यह कभी नहीं हो सकेगा उसके आने जाने के लिए कई रास्ते हैं।
आनन्द : अगर वह तीन-चीर दिन न आवे तब?
सिपाही : क्या हर्ज़ है? मैं आपकी बराबर ही सुध लेता रहूँगा और खाने-पीने को पहुँचाया करूँगा।
आनन्द : अच्छा ऐसा ही सही।
वह सिपाही कमन्द लगाकर छत पर चढ़ा और दीवार फाँद मकान के बाहर हो गया।
थोड़ी रात बच गयी जो आनन्द सिंह ने इसी सोच-विचार में काटी कि यह कौन है जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुँचा। इसे लालच बहुत है, कोई ऐयार मालूम पड़ता है। ऐयारों का जितना ज़्यादे रुपया ख़र्च होता है, उतना ही लालच भी करते हैं। ख़ैर कोई हो, अब तो जो कुछ उसने कहा है करना ही पड़ेगा।
रात बीत गयी, सवेरा हुआ। वह औरत फिर उन्हीं चारों लौंडियों को लिए आ पहुँची। देखा कि आनन्दसिंह पलँग पर पड़े हैं और खाने-पीने का सामान ज्यों-का-त्यों उसी जगह रक्खा है, जहाँ वह रख गयी थी।
औरत : आप क्यों ज़िद करके भूखे-प्यासे अपनी जान देते हैं।
आनन्द : इसी तरह मर जाऊँगा मगर तुमसे मुहब्बत न करूँगा, हाँ अगर एक बात मेरी मानों तो तुम्हारा कहा करूँ।
औरत : (खुश होकर और उनके पास बैठकर) जो कहो मैं करने को तैयार हूँ मगर मुझसे ज़िद्द न करो।
आनन्द : अपने बदन पर से कुल जेवर उतार दो और एक हज़ार अशर्फी मँगा दो।
औरत : (आनन्दसिंह के गले में हाथ डालकर) बस इतने के ही लिए! लो मैं अभी देती हूँ!!
एक हज़ार अशर्फी लाने के लिए उसने दो लौंडियों को कहा और अपने बदन से कुल जेवर उतार दिए। थोड़ी ही देर में वे दोनों लौंडियाँ अशर्फियों का तोड़ा लिए आ मौजूद हुईं।
औरत : लीजिए, अब आप खुश हुए? अब तो उज्र नहीं?
आनन्द : नहीं मगर एक दिन की और मोहलत माँगता हूँ! कल इसी वक्त तुम आओ, बस मैं तुम्हारा हो जाऊँगा।
औरत : अब यह ढकोसला क्या निकाला? आज भी भूखे-प्यासे काटोगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी?
आनन्द : इसकी फ़िक्र न करो, मुझे कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने की आदत है।
औरत : लाचार, ख़ैर यह भी सही, ठहरिए मैं आती हूँ।
इतना कहकर आनन्दसिह को उसी जगह छोड़ चारों लौंडियों के साथ ले वह कमरे से बाहर चली गयी। घण्टा-भर बीतने पर भी वह न लौटी तो आनन्दसिंह उठे और कमरे के बाहर जा उसे ढूँढ़ने लगे मगर कहीं पता न लगा। बाहर की दीवार में छोटी-छोटी दो आलमारियाँ लगी हुई दिखाई दीं। अन्दाज़ कर लिया कि शायद उस खिड़की की तरह यह भी बाहर जाने का कोई रास्ता हो और इधर से ही वे लोग निकल गयी हों।
सोच और फ़िक्र में तमाम दिन बिताया, पहर रात जाते-जाते कल की तरह वही सिपाही फिर पहुँचा और मेवा, दूध आनन्दसिंह को दिया।
आन्द : लीजिए आपकी फर्माइश तैयार है।
सिपाही : तो बस आप भी इस मकान के बाहर चलिए। एक रोज के कष्ट में इतनी रक़म हाथ आयी क्या बुरा हुआ!
सब कुछ सामान अपने कब्जे में करने के बाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुँच कमन्द के ज़रिए से आनन्दसिंह को मकान के बाहर निकालने के बाद आप भी बाहर हो गया। मैदान की हवा लगने से आनन्दसिंह का जी ठिकाने हुआ। समझे कि अब जान बची। बाहर से देखने पर मालूम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अन्दर है, कारीगरों ने पत्थर जोड़कर इसे तैयार किया है। इस मकान के अगल-बगल में कई सुरंगे भी दिखाई पड़ीं।
आनन्दसिंह को लिए हुए वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहाँ कसे-कसाए दो घोड़े पेड़ से बँधे थे। बोला, ‘‘लीजिए एक पर आप सवार होइये दूसरे पर मैं चढ़ता हूँ, चलिए आपको घर तक पहुँचा आऊँ।’’
आनन्द : चुनार यहाँ से कितनी दूर और किस तरफ़ है?
सिपाही : चुनार यहाँ से बीस कोस है। चलिए मैं आपके साथ चलता हूँ, इन घोड़ों में इतनी ताकत है कि सवेरा होते-होते हम लोगों को चुनार पहुँचा दें। आप घर चलिए, इन्द्रजीतसिंह के लिए कुछ फ़िक्र न कीजिए, उनका पता भी बहुत जल्द लग जायेगा, आपके ऐयार लोग उनकी खोज में निकले हुए हैं।
आनन्द : ये घोड़े कहाँ से लाये?
सिपाही : कहीं से चुरा लाये, इसका कौन ठिकाना है?
आनन्द : ख़ैर, यह तो बताओ तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है?
सिपाही : यह मैं नहीं बता सकता और न आपको इसके बारे में कुछ पूछना मुनासिब ही है!
आनन्द : ख़ैर अगर कहने में कुछ हर्ज़ है तो...
आनन्दसिंह अपना पूरा मतलब कहने भी न पाये थे कि कोई चौंकाने वाली चीज़ इन्हें नज़र आयी। स्याह कपड़ा पहिरे हुए किसी को अपनी तरफ़ आते देखा। सिपाही और आनन्दसिंह एक पेड़ की आड़ में हो गये और वह आदमी इनके पास ही से कुछ बड़बड़ाता हुआ निकल गया, जिसे यह अनुमान भी न था कि इस जगह पर कोई छिपा हुआ मुझे देख रहा है।
उसकी बड़बड़ाहट इन दोनों ने सुनी, यह कहता जाता था—‘‘अब मेरा कलेजा ठण्डा हुआ, अब मैं घर जाकर बेशक सुख की नींद सोऊँगी और उस हरामजादे की लाश को गीदड़ और कौवे कल दिन-भर में खा जायेंगे जिसने मुझे औरत जानकर दबाना चाहा था और यह न समझा था कि इस औरत का दिल हज़ार मर्दों से भी बढ़कर है!’’
आनन्द सिंह और सिपाही दोनों उसकी तरफ़ टकटकी लगाए देखते रहे जिसकी बकवास से यह मालूम हो गया था कि कोई औरत है, वह देखते-देखते नज़रों से ग़ायब हो गयी।
सिपाही : बेशक इसने कोई खून किया है।
आनन्द : और वह भी इसी जगह कहीं पास में, खोजने से ज़रूर पता लगेगा।
दोनों आदमी इधर-उधर ढूँढ़ने लगे, बहुत तकलीफ करने की नौबत न आयी और दस ही कदम पर एक तड़पती हुई लाश पर इन दोनों की नज़र पड़ी।
सिपाही ने अपने बग़ल से एक थैली निकाली और चकमक पत्थर से आग झाड़, मोमबत्ती जला, उस तड़पती लाश को देखा। मालूम हुआ किसी ने कटार या खंजर इसके कलेजे के पार कर दिया है, खून बराबर बह रहा है, जख्मी पैर पटकता और बोलने की कोशिश करता है मगर बोला नहीं जाता।
सिपाही ने अपनी थैली से एक छोटी बोतल निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क़ भरा हुआ था। इसमें से थोड़ा अर्क़ जख्मी के मुँह में डाला। गले के नीचे उतरते ही उसमें कुछ बोलने की ताकत आयी और बहुत ही धीमी आवाज़ से उसने नीचे लिखे हुए कई टूटे-फूटे शब्द अपने मुँह से निकालने के साथ ही दम तोड़ दिया।
‘‘ओफ़... सोस, यह खूबसूरत पिशाची... तेज़सिंह की... जान... मेरी तरह... उसके फ़न्दे में... हाय!... इन्द्रजीत सिंह को...!!’’
उस बेचारे मरनेवाले के मुँह से निकले हुए ये दो-चार शब्द कैसे ही बेजोड़ क्यों न हों मगर इन दोनों सुनने वालों के दिल को तड़पा देने के लिए काफी थे। आनन्दसिंह से ज़्यादे उस सिपाही को बेचैनी हुई जो अपने में बहुत कुछ कर गुजरने की कुदरत रखता था और जानता था कि इस वक्त अगर कोई हाथ कुँअर इन्द्रजीतसिंह और तेज़सिंह की मदद को बढ़ सकता है तो वह सिर्फ़ मेरा ही हाथ है।
सिपाही : कुमार, अब आप घर जाइए। इन टूटी-फूटी बेजोड़ मगर मतलब से भरी बातों को जो इस मरने वाले के मुँह से अनायास निकल पड़ी हैं सुनकर निश्चय हो गया कि आपके बड़े भाई और ऐयारों के सिरताज तेज़सिंह किसी आफ़त में जो बहुत जल्द तबाह कर देने की कुदरत रखती है, फँस गए हैं। ऐसी हालत में मैं जो कुछ कर गुजरने का हौसला रखता हूँ किसी तरह नहीं अटक सकता और मेरा मतलब तभी सिद्ध होगा जब उस औरत को खोज निकालूँगा जो अभी यह आफ़त कर गयी और आगे कई तरह के फ़साद करनेवाली है।
आनन्द : तुम्हारा कहना बहुत सही है मगर क्या तुम कह सकते हो कि ऐसी ख़बर पाकर मैं चुपचाप घर जाना पसन्द करूँगा और जान से ज़्यादे प्यारों की मदद से जी चुराऊँगा?
सिपाही : (कुछ सोचकर) अच्छा तो ज़्यादे बात करने का मौक़ा नहीं है। चलिए! हाँ सुनिए तो, आपके पास कोई हर्बा तो है नहीं। काम पड़ने पर क्या कर सकेंगे? मेरे पास एक खंजर और एक नीमचा है, दोनों में जो चाहें आप ले लें।
आनन्द : बस नीमचा मेरे हवाले कीजिए और चलिए।
आनन्दसिंह ने नीमचा अपनी कमर में लगाया और सिपाही के साथ पैदल ही उस तरफ़ को बढ़ते चले जिधर वह खूनी औरत बकती हुई चली गयी थी।
ये दोनों ठीक उसी पगडण्डी-रास्ते को पकड़े हुए थे जिस पर वह औरत गयी थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर साँस रोककर इधर-उधर की आहट लेते, जब कुछ मालूम न होता तो फिर तेज़ी के साथ बढ़ते चले जाते थे।
कोस-भर के बाद पहाड़ी उतरने की नौबत पहुँची, वहाँ ये दोनों फिर रुके और चारो तरफ़ देखने लगे। छोटी-सी घण्टी बजने की आवाज़ आयी। घण्टी किसी खोह या गड़हे के अन्दर से बजायी गई थी जो वहाँ से बहुत क़रीब था, जहाँ ये दोनों बहादुर खड़े इधर-उधर देख रहे थे।
ये दोनों उसी तरफ़ मुड़े जिधर से घण्टी की आवाज़ आयी थी। फिर आवाज़ आयी, अब तो ये दोनों उस खोह के मुँह पर पहुँच गये जो पहाड़ी की कुछ ढाल उतरकर पगडण्डी रास्ते से बायीं तरफ़ हटकर थी और जिसके अन्दर से घण्टी की आवाज़ आयी थी। बेधड़क दोनों आदमी खोह के अन्दर घुस गये। अब फिर एक बार घण्टी बजने की आवाज़ आयी और साथ ही एक रोशनी भी चमकती हुई दिखायी दी जिसकी वजह से उस खोह का रास्ता साफ़ मालूम होने लगा, बल्कि उन दोनों ने देखा कि कुछ दूर आगे एक औरत खड़ी है जो रोशनी होते ही बायीं तरफ़ हटकर किसी दूसरे गड़हे में उतर गयी जिसका रास्ता बहुत छोटा बल्कि एक ही आदमी के जाने के लायक था। इन दोनों को विश्वास हो गया कि यह वही औरत है जिसकी खोज में हम लोग इधर आये हैं।
रोशनी ग़ायब हो गयी मगर अन्दाज़ से टटोलते हुए ये दोनों भी उस गड़हे के मुँह पर पहुँच गए जिसमें वह औरत उतर गयी थी। उस पर एक पत्थर अटकाया हुआ था लेकिन उस अनगढ़ पत्थर के अगल-बगल छोटे-छोटे ऐसे कई सुराख थे जिनके जरिये से गढ़हे के अन्दर का हाल ये दोनों बखूबी देख सकते थे।
दोनों उसी जगह पर बैठ गये और सुराखों की राह से अन्दर का हाल देखने लगे। भीतर रोशनी बखूबी थी। सामने की तरफ़ चट्टान पर बैठी वही औरत दिखायी पड़ी जिसने अभी तक अपने मुँह से नकाब नहीं उतारी थी और थकावट के सबब लम्बी साँस ले रही थी। उसके पास ही एक कमसिन खूबसूरत हब्शी छोकरी बड़ा-सा छुरा हाथ में लिए खड़ी थी, दूसरी तरफ़ एक बदसूरत हब्शी कुदाल से जमीन खोद रहा था, बीच में छत के सहारे एक उल्टी लाश लटक रही थी, एक तरफ़ कोने में जल से भरा हुआ मिट्टी का घड़ा, एक लोटा और कुछ खाने का सामान पड़ा हुआ था। उस गड़हे में इतना ही कुछ था जो लिख चुके हैं।
कुछ देर बाद उस औरत ने अपने मुँह से नक़ाब उतारी। अहा, क्या खूबसूरत गुलाब-सा चेहरा है मगर गुस्से से आँखें ऐसी सुर्ख और भयानक हो रही हैं कि देखने से डर मालूम पड़ता है। वह औरत उठ खड़ी हुई और अपने पास वाली छोकरी के हाथ से छूरा ले उस लटकती हुई लाश के पास पहुँची और दो अंगुल गहरी एक लकीर उसके पीठ पर खींची।
हाय-हाय, ऐसी हसीन और इतनी संगदिली! इतनी बेदर्दी! अभी-अभी एक खून किये चली आती है और यहाँ पहुँचकर फिर अपने राक्षसीपन का नमूना दिखला रही है! वह लाश किसकी है? कहीं यह भी कोई चुनार का ख़ैरख्वाह या हमारे उपन्यास का पात्र न हो।
पीठ पर ज़ख्म पाते ही लाश फड़की। अब मालूम हुआ वह मुर्दा नहीं है कोई जीता जागता आदमी तकलीफ देने के लिए लटकाया गया है। जख्म खाकर लटका हुआ वह आदमी तड़पा और आह भर के बोला—
‘‘हाय, मुझे क्यों तक़लीफ़ देती हो, मैं कुछ नहीं जानता!’’
औरत : नहीं तुझे बताना ही होगा? तू खूब जानता है। (पीठ पर फिर गहरी छुरी चलाकर) बता बता?
उलटा आदमी : हाय, मुझे एक ही दफे क्यों नहीं मार डालतीं? मैं किसी का हाल क्या जानूँ, मुझे इन्द्रजीतसिंह से वास्ता?
औरत : (फिर छुरी से काटकर) मैं खूब जानती हूँ, तू बड़ा पाजी है, तुझे सब-कुछ मालूम है। बता नहीं तो गोश्त काट-काटकर जमीन पर गिरा दूँगी।
उलटा आदमी : हाय, इन्द्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा!
अभी तक कुँअर आनन्दसिंह और वह सिपाही छिपे-छिपे सबकुछ देख रहे थे, मगर जब उस उलटे हुए आदमी के मुँह से यह निकला कि ‘हाय, इन्द्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा! तब मारे गुस्से से उनकी आँखों में खून उतर आया। पत्थर हटा दोनों आदमी बेधड़क अन्दर चले गये और उस बेदर्द छुरी चलाने वाली औरत के सामने पहुँच आनन्दसिंह ने ललकारा—‘‘खबरदार! रख दे छुरा हाथ से!!’’
औरत : (चौंककर) हैं तुम यहाँ क्यों चले आये? ख़ैर अगर आ ही गये तो चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखो। यह न समझो कि तुम्हारे धमकाने से मैं डर जाऊँगी। (सिपाही की तरफ़ देखकर) तुम्हारी आँखों में भी क्या धूल पड़ गयी है? अपने हाकिम को नहीं पहिचानते?
सिपाही : (ग़ौर से देखकर) हाँ ठीक है, तुम्हारी सभों बातें अनोखी होती हैं।
औरत : अच्छा तो आप दोनों आदमी यहाँ से जाइए और मेरे काम में हर्ज़ न डालिए।
सिपाही : (आनन्दसिंह) से चलिए, इन्हें छोड़ दीजिए । जो चाहे सो करें आपका क्या!
आनन्द : (कमर से नीमचा निकालकर) वाह, क्या कहना है, मैं बिना इस आदमी को छुड़ाये कब टलनेवाला हूँ!!
औरत : (हँसकर) मुँह धो रखिए!
बहादुर बीरेन्द्रसिंह के बहादुर लड़के आनन्दसिंह को ऐसी बातों के सुनने की ताब कहाँ? वह दो-चार आदमियों को समझते ही क्या थे? ‘मुँह धो रखिए’ इतना सुनते ही जोश चढ़ आया। उछल कर एक हाथ नीमचे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गयी जो उस औरत के पैर से बँधी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और ज़ोर से जमीन पर गिरने न दिया।
अब तो वह सिपाही भी आनन्द सिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकार कर बोला, ‘‘यह क्या लड़कपन है!!’’
हम ऊपर लिख चुके हैं कि इस सुरंग में दो औरतें और एक हब्शी गुलाम है। अब सिपाही भी उसके साथ मिल गया और चारों ने आनन्दसिंह को पकड़ लिया, मगर वाह रे आनन्दसिंह एक झटका दिया कि चारो दूर जा गिरे। इतने में बाहर से आवाज़ आयी—
‘‘आनन्दसिंह ख़बरदार! जो किया सो ठीक किया, अब आगे कुछ हौसला न करना नहीं तो सज़ा पाओगे!!’’
आनन्दसिंह ने घबड़ाकर बाहर की तरफ़ देखा तो एक योगिनी नज़र पड़ी जो जटा बढ़ाए भस्म लगाए गेरुआ वस्त्र पहिरे दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाँयें हाथ में आग से भरा धधकता हुआ खप्पर जिसमें कोई खुशबूदार चीज़ जल रही थी और बहुत धुआँ निकल रहा था, लिए हुए आ मौजूद हुई।
ताज्जुब में आकर सभी उसकी सूरत देखने लगे। थोड़ी देर में उस खप्पर से निकला हुआ धुआँ सुरंग की कोठरी में भर गया और उसके असर से जितने वहाँ थे सभी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बस अकेली वही योगिनी होश में रही जिसने सभों को बेहोश देख कोने में पड़े हुए घड़े से जल निकाल कर खप्पर की आग बुझा दी।
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