चन्द्रकान्ता सन्तति - 4देवकीनन्दन खत्री |
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
।। चौदहवाँ भाग ।।
पहिला बयान
धन्नूसिंह की बातों ने शिवदत्त और कल्याणसिंह को ऐसा बदहवास कर दिया कि उन्हें बात करना मुश्किल हो गया। शिवदत्त सोच रहा था कि कुछ देर की सच्ची मोहलत मिले तो मनोरमा से उसकी बहिन का हाल पूछे, मगर उसी समय घबरायी हुई मनोरमा खुद ही वहाँ आ पहुँची और उसने जो कुछ कहा वह और भी परेशान करने वाली बात थी। आखिर शिवदत्त ने मनोरमा से पूछा, ‘‘क्या तुमने अपनी आँखों से भूतनाथ को देखा?’’
मनोरमा : हाँ, मैंने देखा स्वयं देखा और उसने वह बात मुझी से कही थी, जो मैं आपसे कह चुकी हूँ।
शिवदत्त : क्या तुम्हारी पालकी के पास आया था?
मनोरमा : हाँ, मैं माधवी से बातें कर रही थी कि वह निडर होकर हम लोगों के पास आ पहुँचा और धमकाकर चला गया।
शिवदत्त : तो तुमने आदमियों को ललकारा क्यों नहीं?
मनोरमा : क्या आप भूतनाथ को नहीं जानते कि वह कैसा भयानक आदमी है? क्या वे तीन-चार आदमी भूतनाथ को गिरफ्तार कर लेते, जो मेरी पालकी के पास थे?
शिवदत्त : ठीक है, वह बड़ा ही भयानक ऐयार है, दो-चार क्या दस-पाँच आदमी भी उसे गिरफ्तार नहीं कर सकते। मैं तो उसके नाम से काँप जाता हूँ। ओफ, वह समय मुझे कदापि नहीं भूल सकता, जब उसने ‘रूहा’ बनकर मुझे अपने चुगंल में फँसा लिया था*। अपने चेले को भीमसेन की सूरत ऐसा बनाया कि मैं भी पहिचान न सका। मगर बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आज वह असली सूरत में तुम्हें दिखायी पड़ा। उसका इस तरह चले आना मामूली बात नहीं है! (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, छठवाँ भाग, दूसरा बयान।)
मनोरमा : जितना मैं उसका हाल जानती हूँ आप उसका सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं जानते होंगे और यही सबब है कि इस समय डर के मारे मेरा कलेजा काँप रहा है, फिर जहाँ तक मैं ख्याल करती हूँ, वह अकेला भी नहीं है।
शिवदत्त : नहीं नहीं, वह अकेला कदापि न होगा। (धन्नूसिंह की तरफ इशारा करके) इसने भी एक ऐसी ही भयानक खबर मुझे सुनायी है।
मनोरमा : (ताज्जुब से) वह क्या?
शिवदत्त : इसका हाल धन्नूसिंह की जुबानी ही सुनना ठीक होगा। (धन्नूसिंह से) हाँ, तुम जरा उन बातों को दोहरा तो जाओ!
धन्नूसिंह : बहुत खूब।
इतना कहकर धन्नूसिंह उन बातों को ऐसे ढंग से दोहरा गया कि मनोरमा का कलेजा काँप उठा और शिवदत्त तथा कल्याणसिंह पर पहिले से भी ज्यादे असर पड़ा।
शिवदत्त (मनोरमा से) क्या वास्तव में वह तुम्हारी बहिन है?
मनोरमा : राम राम, ऐयी भयानक राक्षसी मेरी बहिन हो सकती है? असल तो यह है कि मैं अकेली हूँ, न कोई बहिन है न भाई!
धन्नूसिंह : तब जरा खड़े-खड़े उसके पास चली चलो और जो कुछ वह पूछे उसका जवाब दे दो।
मनोरमा : (रंज होकर) मैं क्यों उसके पास जाने लगी! जाकर कहा दो कि मनोरमा नहीं आती।
धन्नूसिंह : (खैरखाही दिखाने के ढंग से) मालूम होता है कि तुम अपने साथ-ही-साथ हमारे मालिक पर ही आफत लाया चाहती हो (शिवदत्त से) महाराज, उस राक्षसी ने जितनी बातें मुझसे कहीं, मैं अदब के ख्याल से अर्ज नहीं कर सकता, तथापि एक बात केवल आप ही से कहने की इच्छा है।
धन्नूसिंह की बात सुनकर मनोरमा को डर के साथ-ही-साथ क्रोध भी चढ़ आया और वह कड़ी निगाह से धन्नूसिंह की तरफ देखकर बोली, ‘‘महाराज के खैरवाह एक तुम्हीं तो दिखायी देते हो! इतनी बड़ी फौज की अफसरी करने के लिए क्यों मरे जाते हो जो एक औरत के सामने जाने की हिम्मत नहीं है?’’
धन्नूसिंह : हिम्मत तो लाखों आदमियों के बीच घुसकर तलवार चलाने की है मगर केवल तुम्हारे सबब से अपने मालिक पर आफत लाने और अपनी जान देने जो हौसला कोई बेवकूफ आदमी भी नहीं कर सकता। (शिवदत्त से) तिस पर भी महाराज को आज्ञा दें, उसे करने के लिए मैं तैयार हूँ, यदि आग में कूद पड़ने के लिए भी कहें तो क्षण-भर देर लगानेवाले पर लानत भेजता हूँ, परन्तु मेरी बात सुनकर तब जो चाहें आज्ञा दें!
इतना सुनकर शिवदत्त उठ खड़ा हुआ और धन्नूसिंह को अपने पीछे आने का इशारा करके कुछ दूर चला गया, जहाँ से उनकी बातचीत कोई दूसरा नहीं सुन सकता था।
शिवदत्त : हाँ, धन्नूसिंह कहो अब क्या कहते हो?
धन्नूसिंह : महाराज क्षमा करें, रंज न हों! मैं सरकार का नमकख्वार गुलाम हूँ, इसलिए सिवाय सरकार की भलाई के मुझे और कुछ भी नहीं सूझता। मैं यह नहीं जानता कि मनोरमा के सबब से, जो आपकी कुछ भलाई नहीं कर सकती, बल्कि आपके सबब से अपने को फायदा पहुँचा सकती है, आप किसी आफत में फँस जाँय। मैं सच कहता हूँ कि वह भयानक औरत साधारण नहीं मालूम होती। उसने कसम खाकर कहा था कि ‘मैं केवल एक पहर तक राजा शिवदत्त का मुलाहिजा करूँगी, इसके अन्दर अगर मनोरमा मेरे पास न भेजी जायगी या अलग न कर दी जायगी, तो राजा शिवदत्त को इस दुनिया से उठा दूँगी और अपने कुत्तों को जो आदमी के खून के हरदम प्यासे रहते हैं...!’’ बस महाराज अब आगे कहने से अदब जबान रोकती है। (काँपकर) ओफ वे भयानक कुत्ते जो शेर का कलेजा फाड़कर खा जाँय! (रुककर) फिर मनोरमा की जुबानी भी आप सुन ही चुकें हैं कि भूतनाथ यकायक यहाँ पहुँचकर मनोरमा से क्या कह गया है, इसलिए मैं (हाथ जोड़कर) अर्ज करता हूँ कि किसी बहाने मनोरमा को अपने से अलग करें। सरकार खूब समझ सकते हैं कि जिस काम के लिए जा रहे हैं, उसमें सिवाय कुँअर कल्याणसिंह के और कोई भी मदद नहीं कर सकता, फिर एक मामूली औरत के लिए अपना हर्ज या नुकसान करना उचित नहीं, आगे महाराज मालिक हैं, जो चाहें करें।
शिवदत्त : तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, मैं भी यही सोच रहा हूँ।
जिस जगह ये दोनों खड़े होकर बातें कर रहे थे, वहाँ एकदम निराला था, कोई आदमी पास न था। शिवदत्त ने अपनी बात पूरी भी न की थी कि यकायक भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा और कड़ाई के ढंग से शिवदत्त की तरफ देखकर बोला, ‘‘इस अँधेरे में शायद तुम मुझे न पहिचान सको, इसलिए मैं अपना नाम भूतनाथ बताकर तुम्हें होशियार करता हूँ कि घण्टे-भरके अन्दर मेरी खुराक मनोरमा को मेरे हवाले करो या अपने साथ से अलग कर दो नहीं तो जीता न छोड़ूँगा!’’इतना कहकर बिना कुछ जवाब सुने भूतनाथ वहाँ से चला गया और शिवदत्त उसकी तरफ देखता ही रह गया।
शिवदत्त एक दफे भूतनाथ के हाथ में पड़ चुका था और भूतनाथ ने जो सलूक उसके साथ किया था, उसे वह कदापि भूल नहीं सकता था, बल्कि भूतनाथ के नाम ही से उसका कलेजा काँपता था, इसलिए वहाँ यकायक भूतनाथ के आ पहुँचने से वह काँप उठा और धन्नूसिंह की तरफ देखकर बोला, ‘‘निःसन्देह यह बड़ा ही भयानक ऐयार है!’’
धन्नूसिंह : इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि एक साधारण औरत के लिए इस भयानक ऐयार और उस राक्षसी को अपना दुश्मन बना लेना उचित नहीं है।
शिवदत्त : तुम ठीक कहते हो, अच्छा आओ मैं कल्याणसिंह से राय मिलाकर इसका बन्दोबस्त करता हूँ।
धन्नूसिंह को साथ लिये हुए शिवदत्त अपने ठिकाने पर पहुँचा, जहाँ कल्याणसिंह और मनोरमा को छोड़ गया था मनोरमा को यह कहकर वहाँ से विदा कर दिया कि–‘तुम अपने ठिकाने जाकर बैठो, हम यहाँ से कूच करने का बन्दोबस्त करते हैं और निश्चय हो जाने पर तुमको बुलावेंगे’ और जब वह चली गयी और वहाँ केवल ये ही तीन आदमी रह गये तब बातचीत होने लगी।
शिवदत्त ने धन्नूसिंह की जुबानी जो कुछ सुना था और धन्नूसिंह की जो कुछ राय हुई थी, वह सब तथा बातचीत के समय यकायक भूतनाथ के आ पहुँचने और धमकाकर चले जाने का पूरा हाल कल्याणसिंह से कहा और पूछा कि–‘अब आपकी क्या राय होती है’? कुँअर कल्याणसिंह ने कहा, ‘‘मैं धन्नूसिंह की राय पसन्द करता हूँ। मनोरमा के लिए अपने को आफत में फँसाना बुद्धिमानी का काम नहीं है। अस्तु, किसी मुनासिब ढंग से उसे अलग ही कर देना चाहिए।’’
शिवदत्त : तिस पर भी अगर जान बचे तो समझें कि ईश्वर को बड़ी कृपा हुई।
कल्याण : सो क्या?
शिवदत्त : मैं यह सोच रहा हूँ कि भूतनाथ का यहाँ आना केवल मनोरमा ही के लिए नहीं है ताज्जुब नहीं कि हमलोगों का कुछ भेद भी उसे मालूम हो और वह हमारे काम में बाधा डाले।
कल्याण : ठीक है, मगर काम आधा हो चुका है, केवल हमारे और आपके वहाँ पहुँचने-भर की देर है। यदि भूतनाथ हमलोगों का पीछा भी करेगा तो रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर हमारी मर्जी के बिना, वह कदापि नहीं जा सकता और जब तक वह मनोरमा को ले जाकर कहीं रखने या अपना कोई काम निकालने का बन्दोबस्त करेगा, तब तक तो हम लोग रोहतासगढ़ में पहुँचकर जो कुछ करना है, कर गुजरेंगे।
शिवदत्त : ईश्वर करे ऐसा ही हो, अच्छा अब यह कहिए कि मनोरमा को किस ढंग से अलग करना चाहिए?
कल्याण : (धन्नूसिंह से) तुम बहुत पुराने और तजुर्बेकार आदमी हो, तुम ही बताओ कि क्या करना चाहिए?
धन्नूसिंह : मेरी तो यही राय है कि मनोरमा को बुलाकर समझा दिया जाय कि ‘अगर तुम हमारे साथ रहोगी तो भूतनाथ तुम्हें कदापि न छोड़ेगा, सो तुम मर्दानी पोशाक पहिरकर धन्नूसिंह के (हमारे) साथ शिवदत्तगढ़ की तरफ चली जाओ, वह तुम्हें हिफाजत के साथ पहुँचा देगा, जब हम लौटकर तुमसे मिलेंगे तो जैसा होगा किया जायगा। अगर तुम अपने आदमियों को साथ ले जाना चाहोगी तो भूतनाथ को मालूम हो जायगा, अतएव तुम्हारा अकेले ही यहाँ से निकल जाना उत्तम है।’’
शिवदत्त : ठीक है, लेकिन अगर वह इस बात को मंजूर कर ले तो क्या तुम भी उसी के साथ चले जाओगे? तब तो हमारा बड़ा हर्ज होगा!
धन्नूसिंह : जी नहीं, मैं पाँच-चार कोस तक उसके साथ जाऊँगा, इसके बाद बुलावा देकर उसे अकेला छोड़ आपसे आ मिलूँगा।
शिवदत्त : (आश्चर्य से) धन्नूसिंह क्या तुम्हारी अक्ल में कुछ फर्क पड़ गया है या तुम्हें नियासन (भूल जाने) की बीमारी हो गयी है अथवा तुम कोई दूसरे धन्नूसिंह हो गये हो!! क्या तुम नहीं जानते कि मनोरमा ने मुझे किस तरह से रुपये की मदद की है और उसके पास कितनी दौलत है? तुम्हारी ही मार्फत मनोरमा से कितने ही रुपये मँगवाये थे? तो क्या इस हीरे की चिड़िया को मैं छोड़ सकता हूँ? अगर ऐसा ही करना होता तो दरद्दुद की जरूरत ही क्या थी, इसी समय कह देते कि हमारे यहाँ से निकल जा!
धन्नूसिंह : (कुछ सोचकर) आपका का कहना ठीक है, मैं इन बातों को भूल नहीं गया, मैं खूब जानता हूँ कि वह बेइन्तहा खजाने की चाभी है, मगर मैंने यह बात इसलिए कही कि जब उसके सबब से हमारे सरकार ही आफत में फँस जायेंगे, तो वह हीरे की चिड़िया किसके काम आवेगी!
शिवदत्त : नहीं नहीं, तुम इसके सिवाय कोई और तरकीब ऐसी सोचो, जिसमे मनोरमा इस समय हमारे साथ से अलग तो जरूर हो जाय, मगर हमारी मुट्ठी से न निकल जाय।
धन्नूसिंह: (सोचकर) अच्छा तो एक काम किया जाय।
शिवदत्त : वह क्या?
धन्नूसिंह : इसे तो आप निश्चय जानिये कि यदि मनोरमा इस लश्कर के साथ रहेगी तो भूतनाथ के हाथ से कदापि न बचेगी और जैसा कि भूतनाथ कह चुका है, वह सरकार के साथ भी बेअदबी जरूर करेगा, इसलिए यह तो अवश्य है कि उसे अलग जरूर किया जाय, मगर वह रहे अपने कब्जे ही में। तो बेहतर यह होगा कि वह मेरे साथ की जाय, मैं जंगल-ही-जंगल एक गुप्त पगडण्डी से जिसे मैं बखूबी जानता हूँ, रोहतासगढ़ तक उसे ले जाऊँ, और जहाँ आप या कुँअर साहब आज्ञा दें, ठहरकर राह देखूँ। भूतनाथ को जब मालूम हो जायगा कि मनोरमा अलग कर दी गयी, तब वह उसके खोजने की धुन में लगेगा, मगर मुझे नहीं पा सकता। हाँ एक बात और है, आप भी यहाँ से शीघ्र ही डेरा उठायें और मनोरमा की पालकी इसी जगह छोड़ दें, जिससे मनोरमा को अलग कर देने का विश्वास भूतनाथ को पूरा-पूरा हो जाय।
कल्याण : हाँ, यह राय बहुत अच्छी है, मैं इसे पसन्द करता हूँ।
शिवदत्त : मुझे भी पसन्द है, मगर धन्नूसिंह को टिककर राह देखने का ठिकाना बताना आप ही का काम है।
कल्याण : हाँ हाँ, मैं बताता हूँ, सुनो धन्नूसिंह!
धन्नूसिंह : सरकार!
कल्याण : रोहतासगढ़ पहाड़ी के पूरब तरफ एक बहुत बड़ा कूआँ है, और उस पर टूटी फूटी इमारत भी है।
धन्नूसिंह : जी हाँ मुझे मालूम है।
कल्याण : अच्छा तो अगर तुम उस कूएँ पर खड़े होकर पहाड़ की तरफ देखोगे तो टीले के ढंग का एक खण्ड-पर्वत दिखायी देगा, जिसके ऊपर सूखा हुआ पुराना पीपल का पेड़ है और उसी पेड़ के नीचे एक खोह का मुहाना है। उसी जगह तुम हम लोगों का इन्तजार करना, क्योंकि उसी खोह की राह से हम लोग रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर घुसेंगे, मगर उस खोह तक पहुँचने का रास्ता जब तक हम न बतावें, तुम वहाँ नहीं जा सकते। (शिवदत्त से) आप मनोरमा को बुलवाकर सब हाल कहिए, अगर वह मंजूर करे तो हम धन्नूसिंह को रास्ते का हाल समझा दें।
शिवदत्त : (धन्नूसिंह से) तुम ही जाकर उसे बुला लाओ।
‘‘बहुत अच्छा’’ कहकर धन्नूसिंह चला गया और थोड़ी ही देर में मनोरमा को साथ लिये हुए आ पहुँचा। उसके विषय में जो कुछ राय हो चुकी थी, उसे कल्याणसिंह ने ऐसे ढंग से मनोरमा को समझाया कि उसने कबूल कर लिया और धन्नूसिंह के साथ चले जाना ही अच्छा समझा। कुँअर कल्याणसिंह ने उस टीले तक पहुँचने का रास्ता धन्नूसिंह को अच्छी तरह समझा दिया। दो घोड़े चुपचुपाते तैयार किये गये, मनोरमा ने मरदानी पोशाक पालकी के अन्दर बैठकर पहिरी और घोड़े पर सवार हो धन्नूसिंह के साथ रवाना हो गयी। धन्नूसिंह की सवारी का घोड़ा बनिस्बत मनोरमा के घोड़े के तेज और ताकतवर था।
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