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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

सातवाँ बयान


अब हम थोड़ा-सा हाल लक्ष्मीदेवी की शादी का लिखना आवश्यक समझते हैं।

जब लक्ष्मीदेवी की माँ जहरीली मिठाई के असर से मर गयी (जैसा कि ऊपर के लेख से हमारे पाठकों को मालूम हुआ होगा) तब लक्ष्मीदेवी की सगी मौसी जो विधवा थी, और अपने ससुराल में रहा करती थी, बुला ली गयी और उसने बड़े लाड़-प्यार से लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली की परवरिश शुरू की और बड़ी दिलजमई तथा दिला से उन तीनों को रखा। परन्तु बलभद्रसिंह स्त्री के मरने से बहुत ही उदास और विरक्त हो गया था। उसका दिल गृहस्थी तथा व्यापार की तरफ नहीं लगता था और वह दिन रात इसी विचार में पड़ा रहता था कि किसी तरह तीनों लड़कियों की शादी हो जाय और वे सब अपने-अपने ठिकाने पहुँच जायँ तो उत्तम हो। लक्ष्मीदेवी की बातचीत तो राजा गोपालसिंह के साथ तय हो चुकी थी, परन्तु कमलिनी और लाडिली के विषय में अभी कुछ निश्चय नहीं हो पाया था।

लक्ष्मीदेवी की माँ को मरे जब लगभग सोलह महीने हो चुके तब उसकी शादी का इन्तजाम होने लगा। उधर राजा गोपालसिंह और इधर बलभद्रसिंह तैयारी करने लगे। यह बात पहले से ही तै पा चुकी थी कि राजा गोपालसिंह बारात सजाकर बलभद्रसिंह के घर न आवेंगे, बल्कि बलभद्रसिंह को अपनी लड़की उनके घर ले जाकर ब्याह देनी होगी और आखिर ऐसा ही हुआ।

सावन का महीना और कृष्णपक्ष की एकादशी का दिन था, जब बलभद्रसिंह अपनी लड़की को लेकर जमानिया पहुँचे। उसके दूसरे या तीसरे दिन शादी होने वाली थी, और उधर कमबख्त दारोगा ने गुप्त रीति से हेलासिंह और उसकी लड़की मुन्दर को बुलाकर अपने मकान में छिपा रक्खा था। बलभद्रसिंह और दारोगा की बड़ी दोस्ती थी और बलभद्रसिंह दारोगा पर बड़ा विश्वास करता था, मगर अफसोस, रुपया जो चाहे सो करावे। इसकी ठण्डी आँच की बरदाश्त करना किसी ऐसे-वैसे दिल का काम नहीं। इसके सबब से बड़े-बड़े मजबूत कलेजे हिल जाते हैं, और पाप और पुण्य के विचार को तो यह इसी तरह से उड़ा देता है जैसे गन्धक का धुँआ, कनेर, पुष्प के लाल रंग को। यद्यपि दारोगा और बालभद्रसिंह में दोस्ती थी परन्तु हेलासिंह के दिखाये हुए सब्जबाग ने दारोगा को ईश्वर और धर्म की तरफ कुछ भी विचार करने न दिया और बड़ी दृढ़ता के साथ विश्वासघात करने के लिए तैयार हो गया।

बलभद्रसिंह अपनी लड़की तथा कई नौकर और सिपाहियों को लेकर जमानिया में पहुँचे और एक किराये के बाग में डेरा डाला जोकि दारोगा ने उनके लिए पहिले ही से ठीक कर रक्खा था। जब हर तरह का सामान ठीक हो गया तो उन्होंने दोस्ती के ढंग पर दारोगा को अपने पास बुलाया और उन चीजों को दिखाया जो शादी के लिए बन्दोबस्त कर अपने साथ ले आये थे, उन कपड़ों और गहनों को भी दिखाया जो अपने दामाद को देने के लिए लाये थे, फिहरिस्त के सहित वे चीजें उसके सामने रक्खीं, जो दहेज में देने के लिए थीं और सबके अन्त में वे कपड़े भी दिखाये, जो शादी के समय अपनी लड़की लक्ष्मीदेवी को पहिराने के लिए तैयार कराकर लाये थे। दारोगा ने दोस्ताने ढंग पर एक-एक करके सब चीजों को देखा और तारीफ करता गया, मगर सबसे ज्यादे देर तक जिन चीजों पर उसकी निगाह ठहरी वह शादी के समय पहिराए जाने वाले लक्ष्मीदेवी के कपड़े थे, दारोगा ने उन कपड़ों को उससे भी बारीक निगाह से देखा, जिस निगाह से कि रेहन रखनेवाला कोई चालाक बनिया उन्हें देखता या जाँच करता।

दारोगा अकेला बलभद्रसिंह के पास नहीं आया था, बल्कि अपने नौकर तथा सिपाहियों के साथ, जिनको वह दरवाजे पर ही छोड़ आया था और भी दो आदमियों को लाया था, जिन्हें बलभद्रसिंह नहीं पहचानते थे और दारोगा ने जिन्हें अपना दोस्त कहकर परिचय दिया था। इस समय इन दोनों ने भी उन कपड़ों को अच्छी तरह देखा, जिनके देखने में दारोगा ने अपने समय का बहुत हिस्सा नष्ट किया था।

थोड़ी देर तक गपशप और तारीफ करने के बाद दारोगा उठकर अपने घर चला आया। यहाँ उसने सब हाल हेलासिंह से कहा और यह भी कहा कि ‘मैं दो चालाक दर्जियों को अपने साथ लिये गया था, जिन्होंने वे कपड़े बहुत अच्छी तरह देख भाल लिये हैं, जो लक्ष्मीदेवी को विवाह के समय पहिराए जानेवाले हैं और उन दर्जियों को ठीक उसी तरह के कपड़े तैयार करने के लिए आज्ञा दे दी गयी है’ इत्यादि।

जिस दिन शादी होने वाली थी, केवल रात ही अँधेरी न थी, बल्कि बादल भी चारों तरफ से इतने घिर आये थे कि हाथ-को-हाथ भी नहीं दिखायी देता था। ब्याह का काम उसी खास बाग में ठीक किया गया था, जिसमें मायारानी के रहने का हाल हम कई मर्तबे लिख चुके हैं। इस समय इस बाग का बहुत बड़ा हिस्सा दारोगा ने शादी के सामान वगैरह रखने के लिए अपने कब्जे में कर लिया था, जिसमें कई दलान, कोठरियाँ, कमरे और तहखाने भी थे, और साथ-साथ उसने हेलासिंह की लड़की मुन्दर को भी लौंडियों के-से कपड़े पहना के अन्दर एक तहखाने में छिपा रक्खा था।

कन्यादान का समय तीन-पहर रात बीते पण्डितों ने निश्चय किया था, और जो पण्डित विवाह करानेवालों का मुखिया था, उसे दारोगा ने पहिले ही मिला लिया था। दो पहर रात बीतने के पहिले ही लक्ष्मीदेवी को साथ लिए बलभद्रसिंह बाग के अन्दर कर लिये गये और विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया गया। बाग का जो हिस्सा दारोगा ने अपने अधिकार में रक्खा, उसमें एक सुन्दर सजी हुई कोठरी भी थी जिसके नीचे एक तहखाना था। दारोगा की इच्छा से गोपालसिंह के कुल देवता का स्थान उसी में नियत किया गया था, और उसके नीचे वाले तहखाने में दारोगा ने हेलासिंह की लड़की मुन्दर को ठीक वैसे ही कपड़े पहिनाकर छिपा रक्खा था, जैसे कि बलभद्रसिंह ने लक्ष्मीदेवी के लिए बनवाये थे, और जिन्हें चालाक दर्जियों के सहित दारोगा अच्छी तरह देख आया था।

बलभद्रसिंह का दोस्त केवल दारोगा ही न था, बल्कि दारोगा के गुरुभाई इन्द्रदेव से भी उनकी मित्रता थी, और उन्हें निश्चय था कि इस विवाह में इन्द्रदेव भी अवश्य आवेगा, क्योंकि राजा गोपालसिंह भी इन्द्रेव को मानते और उनकी इज्जत करते थे, परन्तु बलभद्रसिंह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, जब विवाह का समय निकट आ जाने पर भी उन्होंने इन्द्रदेव को वहाँ न देखा। जब उसने दारोगा से पूछा तो दारोगा ने इन्द्रदेव की चीठी दिखायी, जिसमें यह लिखा था कि ‘मैं बीमार हूँ इसलिए विवाह में उपस्थित नहीं हो सकता और इसलिए आपसे तथा राजा साहब से क्षमा माँगता हूँ।

जब कन्यादान हो गया तो पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को लिये हुए राजा गोपालसिंह उस कोठरी में आये, जहाँ कुल देवता का स्थान बनाया गया था, और वहाँ भी पण्डित ने कई तरह की पूजा करायी। इसके बात पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को छोड़ गोपालसिंह उस कोठरी से बाहर आये और वे लौंडियाँ भी बाहर कर दी गयी जो लक्ष्मीदेवी के साथ थीं। उस समय पानी बड़ी जोर से बरसने लगा और हवा बड़ी तेज चलने लगी, इस सबब से जितने आदमी वहाँ थे, सब छितर-बितर हो गये और जिसको जहाँ जगह मिली वहाँ जा घुसा। दारोगा तथा पण्डित की आज्ञानुसार बलभद्रसिंह पालकी में सवार हो अपने डेरे की तरफ रवाना हो गये, इधर गोपालसिंह दूसरे कमरे में जाकर गद्दी पर बैठ रहे और रण्डियों का नाच शुरू हुआ। जितने आदमी उस बाग में थे, उसी महफिल की तरफ जा पहुँचे और नाच देखने लगे और इस सबब से दारोगा को भी अपना काम करने का बहुत अच्छा मौका मिल गया। वह उस कोठरी में घुसा, जिसमें लक्ष्मीदेवी थी, उसे पूजा कराने के बहाने से अन्दर ले गया और तहखाने में से मुन्दर को लाकर लक्ष्मीदेवी की जगह बैठा दिया। उस समय लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि चालबाजी खेली गयी और बदकिस्मती ने आकर उसे घेर लिया। यद्यपि वह बहुत चिल्लायी और रोयी, मगर उसकी आवाज तहखाने और उसके ऊपरवाली कोठरी को भेदकर उन लोगों के कानों तक न पहुँच सकी, जो कोठरी के बाहर दालान में पहरा दे रहे थे या महफिल में बैठे रण्डी का नाच देख रहे थे। तहखाने के अन्दर से एक रास्ता बाग के बाहर निकल जाने का था, जिसके खुले रहने का इन्तजाम दारोगा न पहिले ही से कर रक्खा था, और दारोगा के आदमी गुप्त रीति से बाहरी दरवाजे के आसपास मौजूद थे। दारोगा ने लक्ष्मीदेवी के मुँह में कपड़ा ठूसकर उसे हर तरह से लाचार कर दिया और इस सुरंग की राह बाग के बाहर पहुँचा, और अपने आदमियों के हवाले कर दरवाजा बन्द करता हुआ लौट आया। घण्टे ही भर के बाद लक्ष्मीदेवी ने अपने को अजायबघर की किसी कोठरी में बन्द पाया, और यह भी वहाँ उसके सुनने में आया कि बलभद्रसिंह पर जो पानी बरसते में अपने डेरे की तरफ जा रहे थे, डाकुओं ने छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर ले गये। जब यह खबर राजा गोपालसिंह के कानों में पहुँची तो महफिल बरखास्त कर दी गयी, अकेली लक्ष्मीदेवी (मुन्दर) महल के अन्दर पहुँचायी गयी और राजा साहब की आज्ञानुसार सैकड़ों आदमी बलभद्रसिंह की खोज में रवाना हो गये। उस समय पानी का बरसना बन्द हो गया था, और सुबह की सुफेदी आसमान पर अपना दखल जमा चुकी थी। बलभद्रसिंह को खोजने के लिए राजा साहब के आदमियों ने दो दिन तक बहुत कुछ उद्योग किया। मगर कुछ काम न चला, अर्थात् बलभद्रसिंह का पता न लगा और पता लगता भी क्योंकर? असल तो यह है कि बलभद्रसिंह भी दारोगा के कब्जे में पड़कर अजायबघर में पहुँच चुके थे।

बलभद्रसिंह पर डाका पड़ने और उनके गायब होने का हाल लेकर, जब उनके आदमी लोग घर पहुँचे तो घर में हाहाकार मच गया। कमलिनी, लाडिली और उसकी मौसी रोते-रोते बेहाल थीं, मगर क्या हो सकता था। अगर कुछ हो ही सकता था तो केवल इतना ही कि थोड़े दिन में धीरे-धीरे गम कम होकर केवल सुनने-सुनाने के लिए रह जाता, और माया के फेर में पड़े हुए जीव अपने-अपने काम धन्धे में लग जाते। खैर, इस पचड़े को छोड़कर हम बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी का हाल लिखते हैं, जिससे हमारे किस्से का बड़ा भारी सम्बन्ध है।

दारोगा की यह नीयत नहीं थी कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह उसकी कैद में रहें, बल्कि वह यह चाहता था कि महीने-बीस दिन के बाद जब हो हल्ला कम हो जाय और वे लोग अपने घर चले जायँ, जो विवाह के न्योते में आये हैं, तो उन दोनों को मारकर टण्टा मिटा दिया जाय। परन्तु ईश्वर की मर्जी कुछ और ही थी। वह चाहता था कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह जीते रहकर बड़े-बड़े कष्ट भोगें, और मुद्दत तक मुर्दों से बदतर बने रहें, क्योंकि थोड़े ही दिन बाद दारोगा की राय बदल गयी, और उसने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को हमेशा के लिए कैद में रखना ही उचित समझा। उसे निश्चय हो गया कि हेलासिंह बड़ा ही बदमाश और शैतान आदमी है, और मुन्दर भी सीधी औरत नहीं हैं। अतएव आश्चर्य नहीं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह के मरने के बाद वे दोनों बेफिक्र हो जाँय और यह समझकर कि अब दोरागा हमारा कुछ नहीं कर सकता, मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर करे तथा जो कुछ मुझे देने का वादा कर चुके हैं, उसके बदले में अगूँठा दिखा दें। उसने सोचा कि यदि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह हमारी कैद में बने रहेंगे तो हेलासिंह और मुन्दर भी कब्जे के बाहर न जा सकेंगे, क्योंकि वे समझेंगे कि अगर दारोगा से बेमुरौवती की जायगी तो वह तुरन्त बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी को प्रकट कर देगा और खुद राजा का खैरखाह बना रहेगा, उस समय लेने-के-देने पड़ जाँयगे, इत्यादि।

वास्तव में दारोगा का ख्याल बहुत ठीक था। हेलासिंह यही चाहता था कि दारोगा किसी तरह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को खपा डाले तो हम लोग निश्चिन्त हो जाँय, मगर जब उसने देखा कि दारोगा ऐसा नहीं करेगा तो लाचार चुप ही रहा। दारोगा ने हेलासिंह के साथ-ही-साथ मुन्दर को भी यह कह रक्खा था कि ‘देखो बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी मेरे कब्जे में है, जिस दिन तुम मुझसे बेमुरौवती करोगी या मेरे हुक्म से सर फेरोगी, उसी दिन मैं लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को प्रकट करके तुम दोनों को जहन्नुम में मिला दूँगा।

निःसन्देह दोनों कैदियों को कैद रखकर दारोगा ने बहुत दिनों तक फायदा उठाया और मालोमाल हो गया, मगर साथ ही इसके मुन्दर की शादी के महीने ही भर बाद दारोगा की चालाकियों ने और लोगों को यह भी विश्वास दिला दिया कि बलभद्रसिंह डाकुओं के हाथ से मारा गया। यह खबर जब बलभद्रसिंह के घर में पहुँची तो उसकी साली और दोनों लड़कियों के रंज का हद्द न रहा। बरसों बीत जाने पर भी उनकी आँखें सदा तर रहा करती थीं, मगर मुन्दर जो लक्ष्मीदेवी के नाम से मशूहर हो रही थी, लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं वास्तव में कमलिनी और लाडिली की बहिन हूँ, उन दोनों के पास हमेशा तोहफा और सौगात भेजा करती थी। और कमलिनी और लाडिली भी जो यद्यपि बिना माँ-बाप की हो गयी थीं, परन्तु अपनी मौसी की बदौलत, जो उन दोनों को अपने से बढ़कर मानती थी और जिसे वे दोनों भी अपनी माँ की तरह मानती थीं, बराबर सुख के साथ रहा करती थीं। मुन्दर की शादी के तीन वर्ष बाद कमलिनी और लाडिली की मौसी भी कुटिल काल के गाल में जा पड़ी। इसके थोड़े ही दिन बाद मुन्दर ने कमलिनी और लाडिली को अपने यहाँ बुला लिया, और इस तरह खातिरदारी के साथ रक्खा कि उन दोनों के दिल में इस बात का शक न होने पाया कि मुन्दर वास्तव में हमारी बहिन लक्ष्मीदेवी नहीं हैं। यद्यपि लक्ष्मीदेवी की तरह मुन्दर भी बहुत खूबसूरत और हसीन थी, मगर फिर भी सूरत-शक्ल में बहुत कुछ अन्तर था, लेकिन कमलिनी और लाडिली ने इसे जमाने का हेर-फेर समझा, जैसाकि हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं।

यह सब कुछ हुआ, मगर मुन्दर के दिल में, जिसका नाम राजा गोपालसिंह की बदौलत मायारनी हो गया था, दारोगा का खौफ बना ही रहा और वह इस बात से डरती ही रही कि कहीं किसी दिन दारोगा मुझसे रंज होकर सारा भेद राजा गोपालसिंह के आगे खोल न दे! इस बला से बचने के लिए उसे इससे बढ़कर कोई तरकीब न सूझी कि राजा गोपालसिंह को ही इस दुनिया से उठा दे और स्वयं राजरानी बनकर दारोगा पर हुकूमत करे। उसकी ऐयाशी ने उसके इस ख्याल को और भी मजबूत कर दिया, और यही वह जमाना था, जबकि एक छोकरे पर जिसका परिचय धनपत के नाम से पहिले के बयानों में दिया जा चुका है, उसका दिल आ गया और उसके विचार की जड़, बड़ की तरह मजबूती पकड़ती चली गयी थी। उधर दारोगा भी बेफिक्र न था, उसे भी अपना रंग चोखा करने का फिक्र लग रही थी। यद्यपि उसने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को एक ही कैदखाने में कैद किया हुआ था। मगर वह लक्ष्मीदेवी को भी धोखे से डालकर एक नया काम करने की फिक्र में पड़ा हुआ था और चाहता था कि बलभद्रसिंह को लक्ष्मीदेवी से इस ढंग पर अलग कर दे कि लक्ष्मीदेवी को किसी तरह का गुमान तक न होने पावे। इस काम में उसने एक दोस्त की मदद ली, जिसका नाम जैपालसिंह था, और जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।

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