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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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संभोग से समाधि की ओर...


मन मिर्जा तन साहिबां 

पंजाब के किसी सूफी शायर की यह पंक्ति प्रतीकात्मक नहीं है। यह जहांगीर-काल की एक गाथा है कि मिटगुमरी जिला के दानाबाद गांव का एक राजपूत मिर्ज़ा जब अपने ननिहाल की एक सुंदरी साहिबा को देखता है, तो साहिबा को अहसास होता है कि मिर्ज़ा एक मन है, जो साहिबा के तन में बस गया है....

किसी देवता की पत्थर-मूर्ति में जो प्राण-प्रतिष्ठा कर सकता है, वही इस मुहब्बत के आलम को समझ सकता है कि मन और तन के संभोग से कोई समाधि की अवस्था तक कैसे पहुंच जाता है -
मुहब्बत की इस गाथा में समाज के तेवर बदलते हैं लोहा सान पर चढ़ता है, भाइयों के बदन में नफरत सुलगने लगती है, उनके होंठ जहर उगलने लगते हैं और वक्त हैरान होकर देखता है, कि दूसरी तरफ मिर्ज़ा और साहिबा के बदन उस पाक मस्जिद से हो गए हैं जहां पांच नमाजें बस्ता लेकर मुहब्बत की तालीम पाने को आई हैं--
कोई योगी जब अपने अंतर में सोई हुई शक्ति को जगाता है, और जब आग की एक लकीर उसकी पीठ की हड्डी में से गुजरती है, तो उसकी काया में बिखरे हुए शक्ति के कण, उस आग की कशिश से एक दिशा अखतियार करते हैं और उससे योगी के मन-मस्तिष्क में जिस महाशक्ति का संचार होता है, ठीक उस कुंडलिनी शक्ति के जागरण का अनुभव संभोग के उस आलम में होता है, जहां प्राण और प्राण का मिलन होता है, और उस महामिलन में उस महाचेतना का दर्शन होता है, जो काया की सीमा में असीम को ढालते हुए, उसे सीमा से मुक्त कर देती है...

पांच तत्व की काया को जिंदगी का यह कर्म-क्षेत्र किसलिए मिला है, मैं समझती हूं इसका रहस्य ओशो ने पाया है, और उस क्षण का दर्शन किया है, जब लहू-मांस की यह काया एक उस मंदिर और एक उस मस्जिद-सी हो जाती है, जहां पूजा के धूप की सुगंध अंतर से उठने लगती है और कोई आयत भीतर से सुनाई देने लगती है...

दागिस्तान हमारी दुनिया का एक छोटा-सा पहाड़ी इलाका है, लेकिन लगता है, वहां के लोगों ने दुनिया के दुखांत का बहुत बड़ा मर्म जाना है। वो लोग जब किसी पर बहुत खफा होते हैं तो एक गाली देते हैं जिससे भयानक कोई और गाली हो नही सकती, कहते हैं...अरे जा!? तुझे अपनी महबूब का नाम भूल जाए।

कह सकती हूं...यही गाली है, जो हमारे हर मजहब को लग गई, हमारे हर वाद और एतकाद को लग गई, और उन्हें अपनी महबूब का नाम भूल गया अपनी अनंत शक्ति का नाम भूल गया...

और फिर ऐसे स्याह-दौर आए कि हमारे सब मजहब और हमारे सब वाद और एतकाद इंसान को भयमुक्त करने की जगह भयग्रस्त करने लगे।
लगता है...यह मर्म भी ओशो ने जाना, और लोगों को भयमुक्त करने के लिए उस अनंत शक्ति की ओर इशारा किया, जो उन्हीं के भीतर थी, लेकिन जिसका नाम उन्हें भूल गया था...
यह आसन और सिंहासन की बहुत बड़ी साजिश थी कि वह मिलकर लोगों को भयग्रस्त करने लगे। वो लोगों को सिर्फ फितरी गुलामी नहीं देते, जेहनी गुलामी भी देते हैं साइकिक गुलामी भी देते हैं। इसी को मैंने कुछ सतरों में इज़हार दिया था...
''मैं कोठढ़ी दर कोठढ़ी
रोज सूरज को जनम देती हूं
और रोज-मेरा सूरज यतीम होता है...

उदास-सा सूरज जब रोज आसमान पर उदय होता है, तो संस्कारों का एक तकाज़ा होता है, कि लोग दूर से उसे देखते हैं एक अजनबी की तरह उसे नमस्कार करते हैं और फिर जल्दी से रास्ता काटकर चल देते हैं और वो यतीम-सा सूरज यूं ही अस्त हो जाता है...
लोग जो भयग्रस्त कर दिए गए थे, वो भूल गए थे कि सूरज की किरण तो अपने घर-आंगन में ले जानी होती है, अपने मन-मस्तिष्क में ले जानी होती है, जहां हमारे अंतर की मिट्टी में पड़ा हुआ एक बीज फूल बनकर खिलने के लिए तरस रहा है।
प्रेम और भक्ति यह दो लफ्ज ऐसे हैं जो हमारे चारों ओर सुनाई देते हैं लेकिन इस तरह घबराए हुए से, जैसे वो लोगों के बागों से तोड़े हुए चोरी के फूल हो। लेकिन फूल तो भीतर से खिलने होते हैं हमारे मन की मिट्टी में से, जहां मिट्टी को अपनी प्रसव-पीड़ा को पाकर सार्थक होना होता है...

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