शब्द का अर्थ
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उपादान :
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पु० [सं० उप-आ√दा (देना)+ल्युट-अन] [वि० उपादेय] १. अपने लिए कुछ प्राप्त करना। २. किसी की कोई वस्तु अपने प्रयोग में लाना। ३. देखना,पढ़ना या सीखना। ज्ञान प्राप्त करना। ४. ज्ञान। बोध। ५. इंन्द्रियों का अपने भोग-विषयों की ओर से हट जाना। ६. न्याय में, ऐसा तत्त्व जो कोई और रूप धारण करके किसी वस्तु के बनने का कारण होता है। जैसे—मिट्टी वह उपादान है, जिससे घड़ा बनता है। ७. सांख्य में, चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों में से एक जिसमें मनुष्य एक ही बात से पूर्ण फल की आशा करके अन्य प्रयत्न छोड़ देता है। ८. दे० ‘उपादान लक्षणा’। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
उपादान-कारण :
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पुं० [कर्म० स०] दे० ‘उपादान’5। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
उपादान-लक्षणा :
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें मुख्य अर्थ ज्यों का त्यों बना रहने पर भी साथ में कोई और अर्थ अथवा किसी और का कर्तृत्व भी ग्रहण कर लेता अथवा सूचित करने लगता है। जैसे—वहाँ जमकर लाठियाँ चलीं। में ‘लाठियो’ ने चलाने वालों का कर्तृत्व ग्रहण कर लिया है। |
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उपादान :
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पु० [सं० उप-आ√दा (देना)+ल्युट-अन] [वि० उपादेय] १. अपने लिए कुछ प्राप्त करना। २. किसी की कोई वस्तु अपने प्रयोग में लाना। ३. देखना,पढ़ना या सीखना। ज्ञान प्राप्त करना। ४. ज्ञान। बोध। ५. इंन्द्रियों का अपने भोग-विषयों की ओर से हट जाना। ६. न्याय में, ऐसा तत्त्व जो कोई और रूप धारण करके किसी वस्तु के बनने का कारण होता है। जैसे—मिट्टी वह उपादान है, जिससे घड़ा बनता है। ७. सांख्य में, चार प्रकार की आध्यात्मिक तुष्टियों में से एक जिसमें मनुष्य एक ही बात से पूर्ण फल की आशा करके अन्य प्रयत्न छोड़ देता है। ८. दे० ‘उपादान लक्षणा’। |
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उपादान-कारण :
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पुं० [कर्म० स०] दे० ‘उपादान’5। |
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] साहित्य में लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें मुख्य अर्थ ज्यों का त्यों बना रहने पर भी साथ में कोई और अर्थ अथवा किसी और का कर्तृत्व भी ग्रहण कर लेता अथवा सूचित करने लगता है। जैसे—वहाँ जमकर लाठियाँ चलीं। में ‘लाठियो’ ने चलाने वालों का कर्तृत्व ग्रहण कर लिया है। |
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