शब्द का अर्थ
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जात :
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वि० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्त] १. जिसने जन्म लिया हो। उत्पन्न। जैसे–नवजात। २. यौगिक के आरम्भ में, (क) जिसमें या जिसे कुछ उत्पन्न हुआ हो। जैसे–जात-दंत=जिसके दाँत निकल आये हों, (ख) जिसने कुछ उत्पन्न किया हो। जैसे–जात-पुत्रा= जिसने पुत्र जन्माया हो। ३. यौगिक के अंत में, जो किसी में या किसी से उत्पन्न हुआ हो। जैसे–जल-जात=जल में या जल से उत्पन्न। ४. जन्म से संबंध रखनेवाला। जैसे–जातकर्म। (दे.) ५. जो घटना के रूप में हुआ हो। घटित। ६. एकत्र किया हुआ। संगृहीत। ७. प्रकट। व्यक्त। ८. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. चार प्रकार की संतानों में से वह, जिसमें प्रधानतः उसकी माता के से गुण हों। ३. जीव। प्राणी। ४. वर्ग। ५. समूह। स्त्री० [सं० जाति से फा० ज़ात] १. व्यक्ति। जैसे–किसी की जात से फायदा उठाना। २. देह। स्त्री०=जाति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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जातक :
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पुं० [सं० जात+कन्] [स्त्री० जातकी] १. नवजात शिशु। २. बच्चा। बालक। ३. फलित ज्योतिष में, फल कहने का वह प्रकार जिसमें जन्म-कुंडली देखकर उसके आधार पर भविष्य की सब बातें बतलाई जाती है। ४. बौद्धों मे भगवान् बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ या कहानियाँ जो ५॰॰ से ऊपर हैं। ५. बौद्ध भिक्षु। ६. बेंत। ७. हींग का वृक्ष। |
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जात-कर्म(न्) :
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पुं० [सं०] हिंदुओं में, बालक के जन्म के समय होनेवाला एक संस्कार। |
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जात-कलाप :
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पुं० [ब० स०] मोर। |
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जात-क्रिया :
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स्त्री० [ष० त०] जातकर्म। (दे०)। |
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जात-दंत :
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वि० [ब० स०] (बच्चा) जिसके दाँत निकल आये हों। |
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जात-दोष :
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वि० [ब० स०] दोषी। |
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जातना :
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स्त्री०=यातना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० =जाँतना-दबाते हुए पीसना। |
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जात-पक्ष :
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वि० [ब० स०] जिसमें से पर निकले हों। पुं० पक्षी। |
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जात-पाँत :
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स्त्री० [सं० जाति+पंक्ति] जातियों और उपजातियों से संबंध रखनेवाला विभाग। |
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जातमात्र :
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वि० [सं० जात+मात्रच्] हाल का जन्मा हुआ। |
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जात-मृत :
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वि० [कर्म० स०] जो जन्मते ही मर गया हो। |
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जातरा :
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स्त्री०=यात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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जात-रूप :
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वि० [ब० स०] रूपवान्। सुन्दर। पुं० [जात+रूपम्] १. सोना। स्वर्ण। २. धतूरा। |
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जात-देव(स्) :
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पुं० [ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. परमेश्वर। ४. चीता नामक वृक्ष। चित्रक। |
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जातवेदसी :
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स्त्री० [जातवेदस्+ङीष्] दुर्गा। |
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जात-वेश्म(न्) :
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पुं० [ष० त०] १. वह कमरा, कोठरी या घर जिसमें बालक जन्मा हो। सौरी। सूतिकागार। |
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जाता :
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स्त्री० [सं० जात+टाप्] कन्या। पुत्री। बेटी। वि० स्त्री० सं० जात(विशेषण) का स्त्री। पुं०=जाँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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जाति :
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स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्तिन्] १. जन्म। पैदाइश। २. हिंदुओं में, समाज के उन मुख्य चार विभागों में से हर एक जिसमें जन्म लेने पर मनुष्य की जीविका निर्वाह करने के लिए विशिष्ट कार्य-क्षेत्र अपनाने का विधान है। वर्ण। विशेष दे ‘वर्ण’। ३. उक्त में से हर एक बहुत से छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–पांडेय, शक्ल, लोहार, सोनार आदि। ४. किसी राष्ट्र (या राष्ट्रों) के वे निवासी जिनकी नसल एक हो। जैसे–अंगरेज जाति, हिंदू जाति। विशेष–ऐसी जातियों के सदस्यों की शारीरिक बनावट, उनके स्वभाव, परम्पराएँ, विचारधाराएँ भी प्रायः एक-सी होती हैं। जैसे–आर्य, मंगोल या हब्शी जातियाँ। ५. पदार्थों या जीव-जंतुओं की आकृति, गुण धर्म आदि की समानता के विचार से किया हुआ विभाग। कोटि। वर्ग। (जेनस) जैसे–पशु जाति, पक्षी जाति। ६. उक्त में के छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–घोड़े या हिरन की जाति का पशु। ७. कुल। वंश। ८. गोत्र। ९. तर्कशास्त्र और न्यायदर्शन में,किसी हेतु का वह अनुपयुक्त खंडन या उत्तर जो तथ्य के आधार पर नहीं बल्कि केवल साधर्म्य के आधार पर हो। १॰. मात्रिक छंद। ११. छोटा आँवला, चमेली, जायफल, जावित्री आदि पौधों की संज्ञा। १२. मालती नामक लता और उसका फूल। |
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जाति-कर्म(न्) :
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पुं० [ष० त०] जातकर्म। |
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जाति-कोश(ष) :
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पुं० [ष० त०] जायफल। |
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जाति-कोशी(षी) :
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स्त्री० [जातिकोश+ङीष्] जावित्री। |
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जातिच्युत :
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वि० [तृ० त०] (व्यक्ति) जिसके साथ किसी (उसी की) जाति के लोगों ने व्यवहार छोड़ दिया हो। |
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जातित्व :
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पुं० [सं० जाति+त्व] जातीयता। |
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जातिधर्म :
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पुं० [ष० त०] १. वे सब कार्य, गुण या बातें जो किसी जाति में समान रूप से होती हैं। १. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अपना अपना अथवा अपनी अपनी जाति के प्रति होनेवाला विशिष्ट कर्त्तव्य। |
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जाति-पत्र :
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पुं० [ष० त०] जावित्री। |
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जाति-पत्री :
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स्त्री० [ष० त०] जावित्री। |
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जाति-पर्ण :
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पुं० [ष० त०] जावित्री। |
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जाति-पाँति :
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स्त्री० दे० ‘जात-पाँत’। |
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जाति-फल :
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पुं० [मध्य० स०] जायफल। |
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जाति-ब्राह्मण :
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पुं० [तृ० त०] वह ब्राह्मण जिसका केवल जन्म किसी ब्राह्मण कुल में हुआ हो परन्तु अपने जाति-धर्म का पालन न करता हो। |
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जाति-भ्रंश :
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पुं० [ष० त०] जाति भ्रष्टता। |
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जातिभ्रंशकर :
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पुं० [सं० जातिभ्रंश√कृ (करना)+ट] मनु के अनुसार नौ प्रकार के पापों में से एक जिसमें मनुष्य अपनी जाति आश्रम आदि से भ्रष्ट हो जाता है। |
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जाति-भ्रष्ट :
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वि० [तृ० त०] जाति-च्युत। |
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जाति-लक्षण :
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पुं० [ष० त०] किसी जाति में विशिष्ट रूप से पाये जानेवाले चिन्ह या लक्षण। |
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जाति-वाचक :
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वि० [ष० त०] १. जाति बतानेवाला। २. जाति के हर सदस्य का समान रूप से सूचक। जैसे–जातिवाचक संज्ञा। |
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जाति-वाद :
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पुं० [ष० त०] [वि० जातिवादी] यह विचार-धारा या सिद्धान्त कि हमारी अथवा अमुक जाति और सब जातियों की तुलना में श्रेष्ठ है। (रेशियलिज्म)। |
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जाति-विद्वेष :
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पुं० [तृ० त०] जाति-वैर। |
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जाति-वैर :
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पुं० [तृ० त०] एक जाति के जीवों का दूसरी जाति के जीवों के प्रति होनेवाला प्राकृतिक या वंशगत वैर। |
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जाति-शस्य :
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पुं० [ष० त०] जायफल। |
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जाति-शास्त्र :
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पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें मनुष्यों की जातियों के विभागों, पारस्परिक संबंधों, जातीय गुणों आदि का विवेचन होता है। (एन्थालोजी)। |
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जाति-संकर :
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पुं० [ष० त०] दोगला। वर्णसंकर। |
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जाति-सार :
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पुं० [ष० त०] जायफल। |
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जाति-स्मर :
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पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें मनुष्य को अपने पूर्वजन्म की बातें याद आती या रहती हैं। |
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जाति-स्वभाव :
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पुं० [ष० त०] एक अलंकार जिसमें आकृति और गुण का वर्णन किया जाता है। |
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जाति-हीन :
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वि० [तृ० त०] नीच जाति का। |
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जाती :
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स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्तिन्-ङीष्] १. चमेली। २. मालती। ३. जायफल। ४. छोटा आँवला। पुं० [?] हाथी। (डिं०) स्त्री०=जाति। वि० [सं० जातीय से फा० जाती] १. स्वयं अपना निजी। २. व्यक्तिगत। |
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जाती-कोश(ष) :
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पुं० [ष० त०] जायफल। |
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जाती-पत्री :
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स्त्री० [ष० त०] जावित्री। |
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जातीपूग :
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पुं० [ष० त०] जायफल। |
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जाती-फल :
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पुं० [मध्य० स०] जायफल। |
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जातीय :
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वि० [सं० जाति+छ-ईय] १. जाति संबंधी। जाति का। २. जाति में होनेवाला। ३. सारी जाति अर्थात् राष्ट्र या समाज का। (नैशनल)। |
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जातीयता :
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स्त्री० [सं० जातीय+तल्-टाप्] १. जाति का भाव। २. किसी जाति के आदर्शों, गुणों, मान्यताओं, विचारधाराओं आदि की सामूहिक संज्ञा। जैसे–प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जातीयता का अभिमान होना चाहिए। |
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जाती-रस :
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पुं० [ब० स०] बोल नामक गंध द्रव्य। |
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जातु :
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अव्य० [सं०√जन्+क्तुन्, पृषो० सिद्धि] कदाचित्। |
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जातु-क :
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ब० [जातु=निदित क=जल, ब० स०] हींग। |
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जातुज :
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पुं० [सं० जातु√जन्+ड] गर्भिणी की इच्छा। दोहद। |
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जातु-धान :
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पुं० [जातु=निंदित+धान=सामीप्य, ब० स०] असुर। राक्षस। |
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जातुष :
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वि० [सं० जतु+अण्, पुषक् आगम्] १. लाख संबंधी। २. लाख का बना हुआ। |
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जातू :
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पुं० [सं० ज√ तुर्व (मारना)+क्विप्, दीर्घ] वज्र। |
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जातूकर्ण :
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पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक उपस्मृतिकार ऋषि जिनका जन्म अट्ठाइसवें द्वापर में हुआ था। (हरिवंश)। |
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जातेष्टि :
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स्त्री० [सं० जात-इष्टि, ष० त०] जातकर्म। |
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जातोक्ष :
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वि० [जात-उक्षन कर्म० स० चट्] (वह बैल) जिसे छोटी अवस्था में ही बधिया किया गया हो। |
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जात्यंध :
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वि० [सं० जाति-अंध, तृ० त०] (जीव) जो जन्म से ही अंधा हो। |
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जात्य :
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वि० [सं० जाति+यत्] १. किसी की दृष्टि में, जो उसी की जाति का हो। नातेदार। सजातीय। जैसे–जात्य भाई। २. जो अच्छे कुल या जाति में उत्पन्न हुआ हो। कुलीन। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. सुन्दर। सुरूप। |
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जात्यारोह :
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पुं० [सं० जात्य-आरोह, कर्म० स०] खगोल के अक्षांश की गिनती में वह दूरी जो मेष में पूर्व की ओर प्रथम अंश से ली जाती है। |
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जात्यासन :
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पुं० [सं० जात्य-आरोह, कर्म० स० ] तांत्रिक साधना में, एक विशिष्ट आसन जिसमें हाथ और पैर साथ-साथ जमीन पर रखते हुए चला जाता है। |
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जात्रा :
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स्त्री=यात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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जात्री :
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पुं०=यात्री।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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