शब्द का अर्थ
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नष्ट :
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वि० [सं०√नश्+क्त] १. जो आँखों से ओझल हो गया हो। २. जो दिखाई न देता हो। अदृश्य। ३. जो इस तरह टूट-फूट या बिगड़ गया हो कि फिर काम में न आ सके। चौपट। बरबाद। जैसे–बाढ़ में बहुत से गाँव नष्ट हो गये। ४. जो मर या मिट चुका हो। जैसे–हमारी कई पीढ़ियां गुलामी में नष्ट हो चुकी हैं। ५. जो पूरी तरह से निष्फल या व्यर्थ हो गया हो। जैसे–तुमने हमारा सारा परिश्रम नष्ट कर दिया। ६. (व्यक्ति) जिसका चरित्र बहुत अधिक भ्रष्ट हो चुका हो। पतित और हीन। ७. धन-हीन। दरिद्र। पुं० १. नाश। विनाश। २. अदृश्य या तिरोहित होना। |
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नष्ट-चंद्र :
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पुं० [कर्म० स०] भादों के दोनों पक्षों की चतुर्थी तिथियों के चंद्रमा जिनके दर्शन का निषेध है। कहते हैं कि उक्त तिथियों में चन्द्रमा का दर्शन करने पर कलंक लगता है। |
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नष्ट-चित्त :
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वि० [ब० स०] १. जिसका विवेक नष्ट हो चुका हो। २. मद से उत्पन्न या बेसुध। |
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नष्ट-चेत (स्) :
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वि० [ब० स०] बे-सुध। बे-होश। |
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नष्ट-चेष्ट :
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वि० [ब० स०] जिसकी चेष्टाएँ करने की शक्ति नष्ट हो चुकी हो। जो कोई चेष्टा न कर सकता हो। चेष्टाहीन। निश्चेष्ट। |
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नष्टचेष्टता :
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स्त्री० [सं० नष्टचेष्ट+तल्–टाप्] १. नष्ट चेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. बेहोशी। मूर्च्छा। ३. साहित्य में, एक प्रकार का सात्त्विक भाव जिसमें व्यक्ति ध्यान या प्रेम में लीन होकर निश्चेष्ट हो जाता है। |
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नष्ट-जन्मा (न्मन्) :
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पुं० [ब० स०] जारज। दोगला। |
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नष्ट-जातक :
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पुं० [सं० कर्म० स०]=नष्ट-जन्मा। |
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नष्टता :
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स्त्री० [सं० नष्ट+तल्–टाप्] १. नष्ट होने की अवस्था या भाव। नाश। २. चरित्र आदि की भ्रष्टता। |
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नष्ट-दृष्टि :
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वि० [ब० स०] जिसमें देखने की शक्ति न रह गई हो। |
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नष्ट-निधि :
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वि० [ब० स०] १. जो अपनी संपत्ति गँवा चुका हो। २. जो अपने जीवन की सबसे प्रिय वस्तु खो चुका हो। पुं० दिवालिया। |
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नष्ट-प्रभ :
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वि० [ब० स०] जिसकी प्रभा नष्ट हो चुकी हो। जो कांति या तेज से रहित हो चुका हो। |
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नष्ट-प्राय :
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वि० [सुप्सुपा स०] जो बहुत-कुछ नष्ट हो चुका हो। जो पूरी तरह से नष्ट होने के पास पहुंच चुका हो। |
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नष्ट-बुद्धि :
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वि० [ब० स०] १. जिसकी बुद्धि नष्ट हो चुकी हो। २. जिसकी बुद्धि बहुत बुरी हो। |
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नष्ट-भ्रष्ट :
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वि० [कर्म० स०] १. जो कट-फट या टूट-फूटकर किसी काम के लायक न रह गया हो। २. सब तरह से खराब और बरबाद। |
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नष्ट-राज्य :
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पुं० [ब० स०] एक प्राचीन देश। |
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नष्ट-रूपा :
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स्त्री० [ब० स० टाप् ] अनुष्टुप छन्द का एक भेद। |
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नष्ट-विष :
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वि० [ब० स०] (जीव) जिसमें विष न रह गया हो। जिसका विष नष्ट हो चुका हो। |
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नष्ट-शुक्र :
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वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसका शुक्र (वीर्य) नष्ट हो चुका हो। |
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नष्टा :
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स्त्री० [सं० नष्ट+टाप्] (स्त्री) जिसका चरित्र या सतीत्व नष्ट हो चुका हो। स्त्री० १. कुलटा। दुराचारिणी। २. रंडी। वेश्या। |
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नष्टाग्नि :
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पुं० [नष्ट-अग्नि, ब० स०] वह साग्निक ब्राह्मण या द्विज जिसके यहाँ की अग्नि आलस्य,प्रमाद आदि के कारण बुझ चुकी हो। |
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नष्टात्मा (त्मन्) :
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वि० [नष्ट-आत्मन्, ब० स०] १. जिसकी आत्मा नष्ट हो चुकी हो। २. बहुत बड़ा दुष्ट तथा नीच। |
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नष्टाप्तिसूत्र :
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पुं० [नष्ट-आप्ति, ष० त०, नष्टाप्ति-सूत्र, ष० त०] वह सूत्र या सुराग जिससे खोई या चोरी गई हुई चीज की खोज की जाती है। |
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नष्टार्तव :
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पुं० [सं० नष्ट-आर्तव, ब० स०] एक रोग जिसमें स्त्री का मासिक धर्म-बन्द हो जाता है। वि० [स्त्री०] जिसे मासिक धर्म न होता हो या जिसका मासिक धर्म होना बंद हो चुका हो। |
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नष्टार्थ :
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वि० [नष्ट-अर्थ, ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसका धन नष्ट हो चुका हो। २. (शब्द) जिसका कोई अर्थ उससे बिलकुल छूट चुका हो। |
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नष्टाश्वदग्धरथन्याय :
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पुं० [नष्ट-अश्व, ब० स० दग्ध, रथ, ब० स० नष्टाश्व-दग्धरथ, द्व० स०, रथ-न्याय, ष० त०] घोड़ों के खोने और रथ के जलने की एक कथा पर आधारित एक न्याय जिसका आशय यह है कि दो व्यक्ति आपसी सहयोग से किसी काम में सफल हो सकते हैं। विशेष–दो व्यक्ति अपने-अपने रथों पर कहीं जा रहे थे। किसी पड़ाव पर एक व्यक्ति के घोड़े खो गये और दूसरे का रथ जल गया। तब एक के रथ में दूसरे के घोड़े जोतकर वे दोनों गंतव्य स्थान पर पहुँचने में समर्थ हुए थे। |
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नष्टि :
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स्त्री० [सं० नश्+क्तिन्] नष्ट होने की अवस्था या भाव। नाश। |
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नष्टेन्द्रिय :
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वि० [नष्ट-इंद्रिय, ब० स०] जिसकी इंद्रियाँ नष्ट अर्थात् अचेष्ट हो चुकी हों। |
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नष्टेदुकला :
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स्त्री० [नष्टा-इन्दुकला, ब० स०] १. प्रतिपदा। २. अमावस्या की रात। |
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