शब्द का अर्थ
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वृक :
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पुं० [सं०] [स्त्री० वृकी] १. भेड़ियां। २. गीदड़। ३. कौआ। ४. चोर। ५. वज्र। ६. क्षत्रिय। ७. अगस्त वृक्ष। |
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वृकदेवा :
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स्त्री० [सं० वृकदेव+टाप्] कृष्ण की माता देवकी। |
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वृकधूप :
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पुं० [सं० कर्म० स०] १. एक तरह का सुगंधित धूप। २. तारपीन। |
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वृकायु :
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पुं० [सं० ब० स०] १. जंगली कुत्ता। २. चोर। |
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वृकोदर :
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पुं० [सं० ब० स०] १. भीमसेन का एक नाम। २. ब्रह्मा। |
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वृक्क :
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पुं० [सं० वृक्क] पशु पक्षियों और स्तनपायी जीवों के पेट के अन्दर का एक अंग जो दो बड़ी ग्रन्थियों या गुल्मों के रूप में होता है। और जिसके अन्दर द्वारा मूत्र शरीर के बाहर निकलता है। गुरदा (किड्नी)। |
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वृक्क शोध :
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पुं० [सं०] एक घातक रोग जिसमें वृक्क या गुरदे सूज जाते हैं। (नेफ़ाइटिस)। |
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वृक्का :
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स्त्री० [सं० वृक्त+टाप्] हृदय। |
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वृक्ष :
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पुं० [सं०√व्रश्च् (छेदने)स, कित्] १. मोटे तथा कठोर तनेवाली वनस्पतियों का एक वर्ग। पेड़। दरख्त। २. दे० ‘वंश वृक्ष’। |
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वृक्षक :
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पुं० [सं० वृक्ष+कन्] १. वृक्ष। पेड़। २. छोटा पेड़। |
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वृक्ष-कुक्कुट :
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पुं० [सं०] जंगली कुत्ता। |
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वृक्षधर :
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पुं० [सं० वृक्ष√चर्+ट] बंदर। |
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वृक्ष-दोहद :
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पुं० [सं०] १. कुछ वृक्षों का कृत्रिम उपायों या विशिष्ट प्रक्रियाओं से असमय से ही खिलने लगना या खिलाया जाना। २. भारतीय साहित्य में कवि प्रसिद्धि (देखें) के अन्तर्गत एक प्रकार की मान्यता और उसका वर्णन। जैसे—सुंदरी युवतियों के पैर की ठोकर से अशोक में फूल लगना और खिलना, उनके नाचने से कचनार में फूल आना, उनके गाने से आम में मंजरियाँ लगना, उनके आलिंगन से कुरवक का खिलना, उनके मुस्कराने से चम्पा का और देखने मात्र से चिलक का खिलना आदि। (दे० कवि-प्रसिद्धि और कवि-समय)। |
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वृक्ष-धूप :
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पुं० [सं०] चीड़ (पेड़)। |
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वृक्षनाथ :
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पुं० [सं० स० त०] वृक्षों में श्रेष्ठ बड़। बरगद। |
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वृक्ष-निर्यास :
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पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष के तने शाखा आदि में से निकलने वाला तरल द्रव्य। निर्यास। |
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वृक्ष-प्रतिष्ठा :
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स्त्री० [सं०] वृक्ष लगाना। वृक्षारोपण। |
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वृक्ष-भक्षा :
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स्त्री० [सं० वृक्ष√भक्ष्+अच्+टाप्] बाँदा नामक वनस्पति। |
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वृक्ष-मूलिका :
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वि० [सं०] वृक्ष के मूल में होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला। |
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वृक्षराज :
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स्त्री० [सं० ष० त०] परजाता। पारिजात। |
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वृक्षरुहा :
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स्त्री० [सं० वृक्ष√रूह्+क+टाप्] १. परगाछा नाम का पौधा। २. रुद्रवती। ३. अमरबेल। ४. जंतुका लता। ५. बिदारी कंद। ६. कंथी नामक पौधा। |
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वृक्ष-रोपण :
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पुं० [सं०] सामूहिक रूप से वृक्ष लगाने की क्रिया या भाव। पौधों आदि को इस, उद्देश्य से कहीं प्रतिष्ठित करना कि वे आगे चलकर बड़े पेड़ों का रूप धारण करें। |
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वृक्ष-रोपक :
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वि० [सं०] वृक्ष-रोपण करनेवाला। |
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वृक्ष-वासी :
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वि० [सं० वृक्षवासिन्] [स्त्री० वृक्षवासिनी] जो वृक्षों पर रहता हो अथवा प्राकृतिक रूप से वृक्षों पर रहने के लिए उपयुक्त हो। (आरबोरियल)। |
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वृक्ष-संकट :
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पुं० [सं० ब० स०] वह पतला रास्ता जो घने पड़ों के बीच से दूर तक चला गया हो। |
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वृक्ष-स्नेह :
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पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष निर्यास (दे०)। |
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वृक्षादन :
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पुं० [सं० वृक्ष√अद् (खाना)+ल्युट-अन] १. कुल्हाडी। २. अश्वत्थ। पीपल। ३. पयाल या चिरौजी का पेड़। ४. मधुमक्खियों का छत्ता। |
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वृक्षम्ल :
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पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०] १. इमली। २. चुक नाम की खटाई। ३. अमड़ा। ४. अमर बेल। |
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वृक्षायुर्वेद :
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पुं० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें वृक्षों के रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन होता है। |
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वृक्षालय :
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पुं० [सं० ब० स०] १. वह जिसने किसी वृक्ष पर अपना घर (घोंसला) बनाया हो। २. पक्षी। चिड़िया। |
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वृक्षावास :
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पुं० [सं० ब० स०] तपस्वी, साँप या कोई अन्य प्राणी जो वृक्ष की कोटर में रहता हो। |
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वृक्षोत्थ :
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वि० [सं० वृक्ष+उद्√स्था (ठहरना)+क] वृक्ष पर उत्पन्न होनेवाला। |
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वृक्षोत्पल :
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पुं० [सं० ष० त०] कनियारी या कनकम्पा नामक पेड़। |
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वृक्षौका (कस्) :
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पुं० [सं० ब० स०] वनमानुष। |
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वृक्ष्य :
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पुं० [सं० वृक्ष+यत्] पेड़ का फल। वि० वृक्ष-संबंधी। पुं० फल, फूल पत्ती आदि जो वृक्ष में लगते हैं। |
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