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पता  : पुं० [सं० प्रत्यय, प्रा० पत्तय=अग्नि] १. किसी काम,चीज जगह या बात का परिचायक वह विवरण जिसकी सहायता से उसके पास तक पहुँचा जा सके या उसके रूप स्थिति आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। पद—पता-ठिकाना (दे०)। २. चिट्ठी आदि के ऊपर का वह विवरणात्मक लेख जो सूचित करता है कि वह पत्र किस स्थान के निवासी किस व्यक्ति का है अथवा किसके पास पहुँचना चाहिए। ३. किसी अज्ञात विषय, व्यक्ति आदि के संबंध की ऐसी जानकारी जो अभी तक प्राप्त न हुई हो और जिसे प्राप्त करना अभीष्ट या आवश्यक हो। जैसे—चोर (या मुजरिम) का अभी तक पता नहीं है। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—लगना।—लगाना। पद—पते का=वास्तव में उस स्थान का जिसका सब को परिचय न हो। ४. किसी बात या विषय के गूढ़ तत्त्व या रहस्य की ऐसी जानकारी जो प्राप्त की जाने को हो। जैसे—यह पता लगाना चाहिए कि उसके पास रुपया कहाँ से आता है। पद—पते की बात=ऐसी बात जिससे कोई भेद खुल जाता या रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे—वाह ! तुमने भी क्या पते की बात कही है। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल ‘पते की’ के रूप में भी होता है। स्त्री० [लता का अनु०] लता या उसी तरह की और चीज। लता के साथ प्रयुक्त। जैसे—लता-पता।
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पताई  : स्त्री० [हिं० पत्ता (वृक्ष का)] १. वृक्ष या पौधे की ऐसी पत्तियाँ जो सूखकर झड़ गई हों। मुहा०—पताई लगाना=चूल्हे, भट्ठी आदि में सूखी पत्तियाँ झोंकना। (किसी के मुँह में) पताई लगाना=मुँह फूँकना (स्त्रियों की गाली) २. कूड़ा-करकट। स्त्री० [हिं० पत्ता (कान का)] गहना। जेवर। जैसे—गहना-पताई कुछ नहीं मिला।
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पताकरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो बंगाल, आसाम और पश्चिमी घाट में होता है। इसके फल खाए जाते हैं।
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पताकांक  : पुं० [सं० पताका-अंक, ष० त०, ब० स०] दे० ‘पताका स्थान’।
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पताकांशु  : पुं० [सं० पताका-अंशु, ष० त०] झंडा। झंडी। पताका।
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पताका  : स्त्री० [सं०√पत्+आकन्—टाप्] १. लकड़ी आदि के डंडे के सिरे पर पहनाया हुआ वह तिकोना या चौकोना कपड़ा जिस पर कभी कभी किसी राजा या संस्था का विशिष्ट चिह्न भी अंकित रहता है। झंडा। झंडी। फरहरा। २. झंडा। ध्वजा। (मुहा० के लिए दे० ‘झंडा’ के मुहा०) पद—विजय की पताका=युद्ध आदि में किसी स्थान पर विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाती है। विजय-सूचक। पताका। ३. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ४. सौभाग्य। ५. तीर चलाने में उँगलियों की एक विशिष्ट प्रकार की स्थिति। ६. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी— १०००००००००००० । ७. पिंगल के नौ प्रत्ययों में से आठवाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गुरु, लघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय। ८. साहित्य में, नाटक की प्रासंगिक कथा के दो भेदों में से एक। वह कथा जो रूपक (या नाटक की) आधिकारिक कथा की सहायतार्थ आती और दूर तक चलती है। इसका नायक अलग होता है और पताका नायक कहलाता है। जैसे—प्रसाद के स्कंद गुप्त नाटक में मालव की कथा ‘पताका’ है और उसका नायक वभ्रुवर्मा पताका नायक है। (दूसरा भेद प्रकरी कहलाता है)।
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पताका-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] बाँस आदि जिसमें पताका लगी होती है।
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पताका-वेश्या  : स्त्री० [सं०] बहुत ही निम्न कोटि की वेश्या। टकाही रंडी।
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पताका-स्थानक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में, नाटक के अंतर्गत वह स्थिति जिसमें किसी प्रसंग के द्वारा आगे की या तो अन्योक्ति पद्धति पर या समासोक्ति पद्धति पर सूचित की जाती है।
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पताकिक  : पुं० [सं० पताका+ठन्—इक] वह जो आगे आगे झंडा या पताका लेकर चलता हो।
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पताकित  : वि० [सं० पताका+इतच्] (स्थान) जिस पर पताका लगाई गई हो।
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पताकिनी  : स्त्री० [सं० पताका+इनि—ङीप्] १. सेना। फौज। २. एक देवी का नाम।
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पताकी (किन्)  : वि० [सं० पताका+इनि] [स्त्री० पताकिनी] झंडा लेकर चलनेवाला। पुं० १. रथ। २. फलित ज्योतिष में राशियों का एक विशेष वेध जिससे जातक के अरिष्ट काल की अवधि जानी जाती है।
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पतामी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की नाव।
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पतार  : पुं० [सं० पाताल] १. घना जंगल। सघन वन। २. नीची भूमि। ३. दे० ‘पाताल’।
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पतारी  : स्त्री० [देश०] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की चिड़िया जिसका शिकार किया जाता है।
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पताल  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पताल-आँवला  : पुं० [सं० पाताल-आमकली] औषध के काम में आनेवाला एक पौधा।
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पताल-कुम्हड़ा  : पुं० [सं० पाताल-कुष्मांड] एक तरह का जंगली पौधा।
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पताल-दंती  : पुं०=पातालदंती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतावर  : पुं० [हिं० पत्ता] पेड़ के सूखे झड़े हुए पत्ते।
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पतासा  : पुं०=पताशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतासी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी रुखानी (बढ़ई)।
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