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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

दक्षिण अफ्रीका की तैयारी


मेरा उक्त अधिकारी के यहाँ जाना अवश्य दोषयुक्त था। पर अधिकारी का अधीरता, उसके रोष ऐर उद्धतता के सामने मेरा दोष छोटा हो गया। दोष का दण्ड चपरासी का धक्का न था। मैं उसके पास पाँच मिनट भी न बैठा होउँगा। उसे तो मेरा बोलना भी असह्य मालूम हुआ। वह मुझसे शिष्टातापूर्वक जाने को कह सकता था, पर उसके मद की कोई सीमा न थी। बाद में मुझे पता चला कि इस अधिकारी के पास धीरज नाम की कोई चीज थी ही नहीं। अपने यहाँ आने वालो का अपमान करना उसके लिए साधारण बात थी। मर्जी के खिलाफ कोई बात मुँह से निकलते ही साहब का मिजाज बिगड़ जाता था।

मेरा ज्यादातर काम तो उसी की अदालत में रहता था। खुशामद मैं कर ही नहीं सकता था। मैं इस अधिकारी को अनुचित रीति से रिझाना नहीं चाहता था। उसे नालिश की धमकी देकर मैं नालिश न करुँ और उसे कुछ भी न लिखूँ, यह मुझे अच्छा न लगा।

इस बीच मुझे काठियावाड़ के रियासती षड़यंत्रों का भी कुछ अनुभव हुआ। काठियावाड़ अनेक छोटे-छोटे राज्यों का प्रदेश हैं। यहाँ मुत्सद्दियों का बड़ा समाज होना स्वाभाविक ही था। राज्यों के बीच सूक्ष्म षड़्यंत्र चलते, पदों की प्राप्ति के लिए साजिशें होती, राजा कच्चे कान का और परवश रहता। साहबों के अर्दलियों तक की खुशामद की जाती। सरिश्तेदार तो साहब से भी सवाया होता; क्योंकि वही तो साहब की आँख, कान और दुभाषियें का काम करता था। सरिश्तेदार की इच्छा ही कानून थी। सरिश्तेदार की आमदनी साहब से ज्यादा मानी जाती थी। संभव हैं, इसमें अतिशयोक्ति हो, पर सरिश्तेदार के अल्प वेतन की तुलना में उसका खर्च अवश्य ही अधिक होता था। यह वातावरण मुझे विष-सा प्रतित हुआ। मैं अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसकी चिन्ता बराबर बनी रहती। मैं उदासीन हो गया। भाई ने मेरी उदासीनता देखी। एक विचार यह आया कि कहीं नौकरी कर लूँ, तो इन खटपटों से मुक्त रह सकता हूँ। पर बिना खटपट के दीवान का या न्यायधीश का पद कैसे मिल सकता था?

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