जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू अरस्तूसुधीर निगम
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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…
सुकरात के विचारों ने प्लेटो के गहन अध्ययन तथा उसके अपने दर्शन की भूमिका अवश्य तैयार की थी। ईसा पूर्व 399 में जब सुकरात को प्राण दंड दिया गया तो उसकी शिष्य मंडली भयातुर होकर तितर-बितर हो गई थी, अंतरंग साथी भाग गए। इनमें प्लेटो भी था। उसका कहना था कि एथेंस में आत्मा की आवाज सुनने वाले के लिए स्थान नहीं है। एथेंस से भागते समय प्लेटो 37 वर्ष का था। वे लगातार यात्रा करते रहे और इसी यात्रा के अनुभव तथा जनमानस के अध्ययन के कारण ही ईसा पूर्व 383 में उन्होंने अकादमी की स्थापना की। प्लेटो साहित्य आज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। उसके लगभग 25 संवाद ग्रंथ अपोलोगिया तथा 13 पत्र उपलब्ध हैं। उपनिषद ग्रंथों के समान प्लेटो ने भी अपने सिद्धांत संवाद शैली में प्रस्तुत किए हैं। इनमें सुकरात के वार्तालाप प्रसिद्ध हैं। प्लेटो ने अपने से कई सौ वर्ष पहले से चली आ रही लेखन विधि को ही अपनाया जो विशुद्ध रूप से भारतीय परंपरा रही है, जिसके माध्यम से कठिन-से-कठिन समस्या बिना मन में ऊब पैदा किए हल हो जाती थी और समझ में आ जाती थी। सुकरात ने कुछ नहीं लिखा पर उसका समूचा प्रवचन कथोपकथन ही है। प्लेटो ने भी विधा अपनाई। वे अध्यात्म और दर्शन की कल्पना में सुकरात से आगे बढ़कर भारतीय वैदिक विचारों के अधिक निकट आ गए थे। वे सर्वोपरि एक ईश्वर की सत्ता मानते थे और आत्मा की सत्ता स्वीकार करते थे। यह तो स्पष्ट नहीं है कि क्या वे आत्मा को सर्व-व्यापक ईश्वर का अंश और अद्वैत सिद्धांत के अनुसार हरेक में एक ही आत्मा मानते थे या जैनी अथवा बौद्धमत के अनुसार प्रत्येक जीव की अलग सत्ता मानते थे! पर प्लेटो स्पष्टतः पुनर्जन्म, संस्कार के अनुसार आवागमन के मत का था। उसकी मोक्ष की कल्पना कुछ स्पष्ट नहीं है। पर उसके मत तथा प्रचलित विश्वासों में उसी प्रकार तर्क-वितर्क हैं जैसे सांख्य तथा मीमांसकों के हैं।
सुकरात का आत्मा, अमरता एवं पुनर्जन्म में विश्वास था। फ्रिडो में हम देख सकते हैं कि बड़े धैर्यपूर्वक वह तर्क द्वारा आत्मा की अमरता एवं मृत्यु के उपरांत आत्मा के पुनः शरीर-धारण की अर्थात् पुनर्जन्म को सिद्ध करता है। प्रकारांतर से यह पाइथागोरस के विचारों का ही समर्थन है।
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