प्लेटो ने अपने प्रतिपादन में विज्ञान का, उसकी अनेक विधाओं का यहां तक कि गणित शास्त्र का भी उपयोग किया है पर वह अरस्तू के समान विज्ञान का सहारा उतनी दूर तक नहीं ले गया। अरस्तू ने तो रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान, नीतिशास्त्र तथा मनोविज्ञान आदि को मिलाकर दार्शनिक विवेचन किया। प्लेटो ने तो कह दिया कि सत्य या अच्छाई को जानने के लिए तर्कयुक्त अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है। प्लेटो के लिए सत्य एक है, अमिट है, चिरंतन है। उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। अरस्तू के अनुसार सत्य को जानने के लिए सत्य की निरंतर खोज करते रहना चाहिए। सत्य की व्याख्या में समय, काल के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। प्लेटो का सत्य उत्कृष्ट है, पूर्ण है, संपूर्ण है। उसमें कभी-वेशी नहीं। इस प्रकार वह भारतीय मत ‘पूर्णमिद, पूर्णमिदम्’ के सिद्धांत के बहुत निकट है। पर अरस्तू की दृष्टि में इस संपूर्णता का अभी तक अंतिम रूप नहीं ज्ञात है। बराबर शोध करते-करते इसकी वास्तविकता का पता चलेगा। सुकरात कहते थे कि आत्मा की प्रगति शरीर के क्रिया-कलाप पर निर्भर करती है। शरीर की वासनाएं आंतरिक दृष्टि तथा बोध (ज्ञान) में बाधक होती हैं। सुकरात के इस कथन से प्लेटो सहमत प्रतीत होता है कि आत्मा बार-बार जन्म लेती है, यदि ऐसा न हो तो सृष्टि ही समाप्त हो जाय। ऐसा लगता है कि उसके अनुसार संसार को चलते रहने के लिए बार-बार पुनर्जन्म आवश्यक है पर यह चक्र कहां समाप्त होगा इसका उत्तर सुकरात, प्लेटो, अरस्तू कोई नहीं देता।
प्लेटो के रिपब्लिक में राजनीतिशास्त्र, शासन की व्यवस्था, शासक, राजकर्ता, राजनायक, सामंतशाही सबका विवेचन है। प्लेटो ‘विधान’, संविधान, न्याय का कट्टर पोषक, समर्थक था। राज्य का असली अंग वह नागरिक को मानता था। प्लेटो की मान्यता थी कि यदि कुलीन तंत्र (एरिस्टोक्रेसी) शासक वर्ग बुद्धिमान हो, प्रज्ञ हो, जनता के प्रति वफादार हो, उसका हित सर्वोपरि मानता हो, जन समूह भी अपना कर्तव्य निभाए, संविधान तथा न्याय के अनुसार ही सब कार्य हो तो वह शासन आदर्श हो सकता है।
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