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जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू

अरस्तू

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10541
आईएसबीएन :9781610000000

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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…


धीरे-धीरे अकादमी में अरस्तू की जेनोकातिस, एरास्तोस, कोर्सीकोस, हर्मियास आदि विद्यार्थियों से गहरी मित्रता हो गई। तब उसे कहां ज्ञात था कि यही मित्र उसके अपने भावी जीवन की धारा को सुखद मोड़ देंगे। यूनान के सभी भागों से विद्वान अकादमी आते थे। प्लेटो की ख्याति सुनकर विदेशों के भी विद्वानों ने भी अकादमी की यात्रा की थी।

प्लेटो स्वयं अरस्तू से बहुत प्रभावित था। वह उसे अकादमी का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी मानता था जो अकादमी की शैक्षणिक गतिविधियों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता था। उसकी मेधा सभी पर प्रसादपूर्ण रूप का पवित्र प्रभाव छोड़ती थी। वह सभी का वरेण्य हितैषी था। इस कारण प्लेटो उसे ‘विद्यालय का मस्तिष्क’ भी कहता था। अरस्तू को अपनी प्रशंसा सुनकर साधु-सम्मत संकोच होता।

जीवन का स्वर्णिम काल अरस्तू ने अकादमी को अर्पित कर दिया था। पूरे बीस वर्ष वह अकादमी में रहा। अब विदा लेने की बारी थी। बीस वर्ष के दीर्घ काल में अरस्तू ने अपने दार्शनिक विचारों का संग्रह किया था और अब उसे अकादमी जैसा उन्नत शैक्षिक मंच चाहिए था जहां से वह अपने विचारों का प्रचार और प्रसार कर सकता।

कहा जाता है कि प्लेटो और अरस्तू के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। प्लेटो ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने भतीजे स्प्यूसियस को अकादमी का प्रधान नामित कर दिया था। यह मानने के पर्याप्त आधार नहीं हैं कि अरस्तू की प्लेटो से बनती नहीं थी। प्लेटो से अनबन होती तो अरस्तू बीस वर्ष तक अकादमी में टिक नहीं सकता था। अकादमी प्लेटो की निजी संपत्ति थी और स्प्यूसयस उसका वैधानिक रूप से उत्तराधिकारी था। इसके अतिरिक्त राज्य-नियमों के अनुसार, अकादमी का अध्यक्ष कोई एथेंसवासी ही हो सकता था अरस्तू की तरह गैर-एथेंसवासी नहीं। उत्तराधिकार की ये मूलभूत बातें अरस्तू भी समझता होगा अतः मनमुटाव होने की बात निरर्थक है। विद्वानों द्वारा एक दूसरे के मतों का खण्डन ज्ञान की एक सामान्य प्रक्रिया होती है। इससे व्यक्तिगत वैमनस्य नहीं आता। अतः यह भ्रम है कि अकादमी का प्लेटो के स्थान पर अध्यक्ष नहीं बनाए जाने के कारण कुपित होकर अरस्तू ने संस्थान छोड़ दिया। गुरु के प्रति उसका मन शरद ऋतु के जल की तरह शुद्ध था।

ईसा पूर्व 349 में प्लेटो की स्वाभाविक मृत्यु हो गई। अरस्तू ने अपने स्वर्गीय गुरु का समाधि लेख लिखा और एथेंस त्यागकर चला गया। प्लेटो की मृत्यु अरस्तू के लिए वैसी ही थी जैसी सुकरात की प्लेटो के लिए। हां, दोनों की मृत्यु में अंतर था। सुकरात को जहां खतरनाक अपराधी घोषित कर मृत्युदंड दिया गया था वहां प्लेटो अपनी संपूर्ण आयु और सम्मान के साथ जीने के पश्चात मरा था। तथापि दोनों मामलों में शिष्यों की स्थिति एक सी थी। प्लेटो ने सुकरात की मृत्यु पर एथेंस छोड़ा तथा अपने गंतव्य विषय में अनिश्चित था। अरस्तू को भी वैसा करना पड़ा। ज्ञान के प्रमुख केंद्र से उसके बंधन टूट गए थे।

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