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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543
आईएसबीएन :9781610000000

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।

दीवार का दर्द

मुझे दीवार कहते हैं। मनुष्यों के साथ रहती हूं, अतः सभ्य कहला सकती हूं। समय के साथ मनुष्य और सभ्य होता चला गया तो दीवारों की अधिक आवश्यकता पड़ने लगी। जैसे मनुष्य अपनी जाति का सृजन करता है वैसे ही उसने मेरा भी निर्माण किया। इसके बदले में, मैं उसे आंधी, पानी, धूप, चोर, डाकू के अतिरिक्त पुलिस से भी सुरक्षा प्रदान करती हूं क्योंकि लोग काले धंधे मेरी आड़ में ही करते हैं। मैं इन्सान की नस-नस से वाकिफ हूं, उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखती जो रहती हूं, या कहूं सुनती रहती हूं क्योंकि इन्सानों ने ही मुझे बदनाम कर रखा है कि दीवारों के कान होते हैं। फिर भी मैं उसके रहस्यों के बारे में कभी नहीं बोलती। आज तक किसी ने नहीं कहा कि दीवारों के मुंह भी होते हैं।

इन्सानों की सुरक्षा के लिए हम चारो बहनों को तलब किया जाता है और हमारे सिर पर एक क्षत्र (छत) रख दिया जाता है- लो बन गया मकान। जैसे-जैसे मेरे काम बदलते हैं मेरे नाम भी बदल जाते हैं। शहर की सुरक्षा के लिए जब मैं उसके चारों ओर डाली जाती हूं तो शहरपनाह या प्राचीर कहलाती हूं। किसी किले की सुरक्षा के लिए उठाए जाने पर मेरा नाम परकोटा होता है और भवनों की रक्षा मैं चहारदिवारी के नाम से करती हूं। ये प्रचलन अब लगभग समाप्त हो गए हैं और मैं सिर्फ ´दीवार´ रह गई हूं।

आगे बढ़ने से पहले दक्षिण शरत की एक लोक कथा सुनाती हूं। एक बुढ़िया अपने पुत्र, पौत्रों और पुत्रवधू के साथ एक गांव में रहती थी। सब लोग अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि प्रयत्न करने पर भी, गरीब की फरियाद की तरह, वह अपनी बात किसी को नहीं सुना पाती थी। जो लोग अपनी बात नहीं कह पाते उनके पेट में दर्द हो जाता है परंतु घुटे हुए घोटालाबाज़ नेताओं की तरह उसकी पाचन शक्ति अपार थी अतः वह बातें तो हजम कर जाती थी पर मोटी होती चली जा रही थी। एक दिन उसे अवसर मिला तो वह गांव के बाहर निकल गई जहां उसे एक खंडहर दिखाई दिया। कोई भवन कितना ही खंडहर क्यों न हो जाए उसकी दीवारें बची रहती हैं। उसने एक-एक कर अपनी बातें चारों दीवारों से कह दीं। परिणाम यह हुआ कि बुढ़िया का मोटापा तत्काल कम हो गया परंतु वे दीवारें धाराशायी हो गईं। कदाचित उन बातों का बोझ न सहन कर पाई हों।

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