जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप कवि प्रदीपसुधीर निगम
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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।
प्रकाश और मेरा साथ प्रारंभ से ही रहा है। पहले दिए जलते थे जो मेरी छाती को काटकर बनाए गए आले में रखे जाते थे। जब बिजली का जमाना आया तब भी मेरा दुःख दूर नहीं हुआ। बिजली के तार, स्विच बोर्ड, बल्ब, ट्यूब आदि सभी मेरे ऊपर स्थापित किए जाने लगे।
हमें लोगों ने बेकार ही बदनाम कर रखा है कि हमारे कान होते हैं। हमारी छाया में कितने जघन्य अपराध होते हैं, काम-लीलाएं चलती हैं, राजनीतिक घात-प्रतिघात तय होते हैं, औरतों पर अमानुषिक अत्याचार किए जाते हैं, पर आज तक एक भी बात इधर से उधर हुई? हमने मानव की रक्षा और उसके कृत्यों, दुष्कृत्यों, अपकृत्यों, सुकृत्यों को गोपनीय रखने का जिम्मा लिया है, सो निबाह रही हूं। तथापि हमारा अपमान करने के लिए मानव गोपनीय बात करते समय आपस में कहता है, ´´शीऽऽऽ, धीमे बोलो, धीमे। दीवारों के भी कान होते हैं।´´
बिठूर के नाना साहब जब स्वाधीनता संग्राम की रूपरेखा बनाते थे तब गोपनीय विमर्श के लिए साथियों के साथ नाव पर बैठकर गंगा के मध्य पहुंचकर बातें करते थे। वे जानते थे महल में वार्ता करने से उनका कोई भी साथी मेरे कान होने की दुहाई दे सकता है। इसी काल में अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ´जफर´ हुए हैं। स्वाधीनता संग्राम में संलग्नता के कारण अंग्रेजों द्वारा उन्हें देश निकाला दे दिया गया। शायर थे, मुल्क से जाते समय उन्होंने कहा, दरो-दीवार पर हसरत की नज़र रखते हैं... हमने भी इस इज्जत-अफजाई का बदला चुका दिया। जब वे रंगून की एक कोठरी में कैद थे तब शायरी लिखने के लिए उनके पास कागज नहीं था। बड़े बेचैन रहते थे। हमने कहा, ´´बादशाह सलामत, कागज का रोना क्यों रोते हैं, लीजिए मेरी छाती हाजिर है, इस पर लिख डालिए।´´ वे खुश हो गए और दीवार पर शायरी लिखकर उन्हें जो सुकून मिला उसे देखकर मैंने यह एतराज भी नहीं किया कि काले कोयले से शायरी लिखकर उन्होंने मुझे बदरंग कर डाला हैं!
कभी-कभी भारत और पाकिस्तान की सीमा पर चीन की तरह एक लम्बी दीवार खींचने की जो चर्चा चलती है उसे सुनकर मुझे बड़ा अफसोस होता है और चर्चा चलाने वालों पर सैकड़ों लानतें भेजती हूं। इस समय सीमा के कुछ भाग पर कांटेदार बाढ़ लगी है तो दोनों देशों की हवाएं एक दूसरे से मिल लेती हैं, अपना सुख-दुःख कह लेती हैं। दीवार खिंचने पर तो हवा आने-जाने की गुंजाइश ही खत्म हो जाएगी। इसलिए कहती हूं, कहीं भी दीवार खींचने से बाज आओ भाई, फिर चाहे वह देश की सीमाएं हों, या इन्सान के दिल हों।
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